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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली मुलतान रै अध्यातमीये प्रश्न पूछाया रो उत्तर, सनैया १ काव्य २ दूहो १ नवा करिने मुक्या, दुरस्त बात जाणी ने खुशी थया ।
सगया इकतीसा
तुम्ह जे लिखे है प्रश्न, ताके भेद भाव झे,
__ तुम ही सौं नाहिं गुझे सुझे है सुदच्छ सौं। मानो "परमात्मा-प्रकाश" 'द्रव्यसंग्रहादि'
और न प्रमाणौ ग्रन्थ ताणो आप पच्छि सौं। ता ते और आगम के उत्तर न आवै चित्त,
लिखि कै बतादें केते हेतु युक्ति लच्छ सौं। दुर हुँते ते भ्रम होड, सैली नाहि कहै कोइ,
बात तो वण जो ज्ञान (होष्टि हूँ प्रतिच्छ सौ ॥१॥
श्लोक युष्माभिलिखिता विचित्र रचना प्रभाः परीक्षार्थिभिः । केचिच्छास्त्रभवाः सुबोध विभवा केचित्प्रहेलीमया । ते वो नो मिलनाहते नहि कृते भ्रांतहतेवः क्षमा। स्तत्प्रत्युत्तर जाल मंगन मनो मीनी धुनानीयते ॥ १॥
दोहा
तजै नाहि व्यवहार कु, भजे नाहि पछपात । तत्व धरें दूपण हरें, सोइ सुन कहात ||१||