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१२८ धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सया ( समस्या) अरे विधि तु विधि जाणत थौ पुनि,
एक विचार कहा यह कीनी । गोरी करी पतरी करि की कुच,
के उच को पुनि बोम ही दीनौ । जो कबहु बहु पौन वसै करि, ।
दूटि जैहैं करि के जु करीनौ । ता तव ऐसे ही कैसे वणावेगो,
धर्म को वैण ते मोनि न लीनी ॥ १ ॥
समस्या-कर्म नो रेख टर नही टारी नीर भर्यो हरिचंद नरिंद ही, कंस को वंस गयो निरधारी । मुज पर्यो दुख पुंज के कुंज, गयो सब राज भयो है भिखारी। लंक कुवंक कलंक लगाइ है, रावण की रिधि जावण हारी। मीन रु मेख कहै धर्म देख प, कर्म की रेख टर नहीं टारी ||शा
समस्या-टारी र नही कर्म की रेखा
छप्पय
एक को एक रु दोइ न आवत, एक कर केई लाख के लेखा। एक के रासभ ही नहीं एक कै, द्वार हजार करै हय हेखा । कोऊ सुखी जगि कोऊ दुखी जन,
काहे कौं काहू को कीजै अदेखा। कोडि उपाय करौ धर्मसी कहैं,
टारी टर नहीं कर्म की रेखा ।। १ ।।