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१२० धर्मवद्धन ग्रन्थावली आस पास वास चहै, भूख दुख प्यास सहै,
दास सौं उदास कृक' लासकी सी नई है।। १।। नैंन बान लगै मह, हई सौ जरद भयो,
मोह मद छदि कि, सीतांग की सई है। हैं कोई न को हकीम, धारे धर्मसीम नीम,
आसिकी के दर्द आग और दई गई है ॥२॥
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छ जनो को दुख न देना
सवैया इकतोसा सी नर देह दाता, पूजनीक पिता माता,
इनकु असाता दे असाता बीज वावैगो । देत गुरूदेव जान, या कुं मन शुद्ध मान,
इनके बुरे च का न निगुरौ कहावेगो ॥ साचा सगा वाल्हा सैन इणो सेती दगा दैन,
वात बुरी करें सो कुपात खाक खावेंगो । आपकुजो चाहै सुख, मानो धर्मसीख मुख,
छ जना कु दुख दे सौ विशेप दुख पावैगौ ॥१॥
कि र का टोया री रामति