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________________ शत्रुञ्जय तीर्थ स्तवन १७७ पनर कर्मादान न परिहत्या, आदर्या पाप अठार । निस्तारौ वीजु थासै नहीं, तु हिव मुझ नै तार ॥२०॥सै०|| जीवायोनि चौरासी लाख जे, दीधा तेहनै दुःख । वाद न वास भेलो कहो क्यु बणे, मुझ नै दे हिव मुक्ख ॥ २०॥ जाण अजाण किया जिक, सहु भमता ससार । देइ मन शुद्ध मिच्छामिदुक्कडं, आलोऊ बार बार ।।२२।।सैग। तारण तरण विरुद छै ताहरौ, अशरण शरण आधार । आयौ आश धरी तुझ आगलै, समकित दे मुझ सार ।।२३।।सैक। समकित ताहरौ आया साहिवा, परहा जाय पाप । राति अधारो किम करि रहि सके, उगें सूरज आप ॥२४॥सै॥ इम सकल सुखकर विमल गिरिवर आदि जिनवर आगलै। आलोवता मनशुद्ध इण विधि सफल सहु आशा फल ।। शुभ गच्छ खरतर सुगुरु वाचक विजयहर्ष वखाणए । उवझाय कहै श्रीधर्मवद्धन धर्म ध्यान प्रमाणए ॥२॥ शत्रु जय तीर्थ स्तवन तीर्थ सैजे जी रहिवा मन रजे, (सेवकना) भव भय भंजै मल पातक मंजरे ॥१॥ सिद्धाचल सीमैं जी यात्रा करि जीमे, निश्चय इन नीमैजी भमय न भव भीमइ ॥२॥ १२
SR No.010705
Book TitleDharmvarddhan Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1950
Total Pages478
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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