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कुण्डलिया वावनी
शिकार
ठग वगला जिम पग ठवें, पा. जीवा पास । कुविसन रौ वाह्यो कर, आहेड़ा अभ्यास । आहेड़ा अभ्यास, प्यास भूखें तनु पीडें। मार्यो श्रेणिक मृग, नरक गयो न रह्यो नी । कहे धर्मसी इण कर्म, सुकृति ह निःफल सगला । रहै तकता दिन राति, वहैं जीवा ठग बगला । ठग०३३।
डाका चोरी डाकै पर घर डारि डर, कूकरम करें कठोर । मन में नाहि दया मया, चाहै पर धन चोर । चाहैं पर धन चोर, जोर कुविसन ए जाणो । मुसक बंधि मारिज, घणी वेदन करि घाणो। फल बीजा सम फलं, अब लागै नाहीं आके । धरम किहां धरमसीह, डारि डर पर घर डाके । डा० ॥३४॥
पर स्त्री गमन ढुढा कीधा ढाहि गढ, लक तणी गइ लाज । पर त्रीरे कुविसन पड़ या, रावण गमीयो राज । रावण गमियो सज, साज तो हुंता सवला । परत्रीय कुविसन पड़ या, पाप केइ लागा प्रवला । अपयश जीव उदेग, मान तो नहीं छै मूढा । सुणि भारथ धर्मसीह, ढाहि गढ कीधा ढुढ़ा। दु० ॥३५॥