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श्रावक करणी
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पछिली रात प्रभात रौ, तजि अंघ अज्ञान ।
वे घड़ी एकात वैसि नै, ध्यावे धर्म ध्यान ।।३॥ श्रा ।। उतम कुल हुं उपनौ, पूरवलैं पुन्न ।
जतन करी जिन धर्म ने, राखें जेम रतन्न ॥४|| श्रा.॥ धुरि समकित साचौ धरै, नित गुण नवकार.।
आदर पर उपकार सुं, बरतें विवहार ॥॥ श्रा.॥ करि न सके तोही कर, मनोरथ मन माहि।।
वत वार धार वली, चारित नी चाहि ॥६॥ श्रा देव जुहारी दिन उदय, गुरु वदि सुज्ञान ।
सांभलि उपदेश सूत्रनौ, गिणे धन दिन ज्ञान ॥णा श्रा.॥ वादि कहै. देज्यो वलि, भात पाणी लाभ।
भोजन कीजै भाव सौं, पात्रा पडिलाभ ॥ श्रा.॥८॥ पच्चखाण पूगे पारता, कहे तीन नौकार।।
घर सारू थोड़ो घणौ, करे पुण्य प्रकार ॥ श्रा.॥६॥ ___ पाणी छाणे, प्रेम सुं, दिन मे दोई वार ।
___ जीवाणी पण जतन सु, राखें सुविचार ॥ श्रा. ॥१०॥ पीसण खाडण लीपणे, राधण रधाण ।
छै कूटो छःकायनौ, जयणा करे जाण ॥ श्रा. ॥११॥ ___ चक्की चूल्है चद्र या, तिम घृत नै तेल ।
___ ऊघाड़ा राख्या ईया, वधै पापनी वेल ॥ श्रा. ॥१२॥ ____ बावीस अभक्ष जे वोलिया, तजें परहा तेह ।
चवदे नेम चितारता, इण लाभ अछेह ॥ श्रा.॥१३॥