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सदा २७ लाग। पाखाण इलाख श्री कु सिरपाव दीना वि जणाने।
[२] सं० १७८४ वर्षे मि० वैशाख वदि १३ दिने महोपाध्याय श्री धर्मवर्द्धनजी री छतड़ी कारापिता शिष्य पं० सास ..
शिप्य-परम्परा
कविवर धर्मवर्द्धन के गुरुभ्राता विजयवर्द्धन थे, जिनके रचित कई स्तवन उपलब्ध है। आप अधिकाश अपने गुरू विजयहर्षजी के साथ रहा करते । इनके शिष्य ज्ञानतिलक व्याकरण और काव्य शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे। इनके रचित 'सिद्धान्तचन्द्रिका वृत्ति' 'संस्कृत विज्ञप्ति लेखद्वय और कई अष्टक आदि प्राप्त हैं। इनमें १०८ श्लोक का एक "विज्ञप्ति लेख मुनि जिनविजयजी सम्पादित 'विज्ञप्ति लेख संग्रह मे हमने प्रकाशित करवाया है। इसमे धर्मवर्द्धनजी सम्बन्धी निन्नोक्त श्लोक उल्लेखनीय है ।
पठिता सद्विद्याना सन्निधिरिव सन्निधौ मुनीशानाम् । श्री धर्मवर्द्धनगणिः सत्कविरिव भासते स्वभापा च ॥३४. अलालाटिका धाटिका पण्डिताना, निराकारव चारवो ऽमीरवश्च । धियो गर्द्धना धर्मतो वर्द्धनाद्या, विभान्तूपकण्ठे सतां पाठका हि ॥१०॥