________________
धर्मवद्धन ग्रन्थावली
दिन सुध भजि तजि सुर का दुर की। धर हित धारि घरमसीख धुर की । ३ । जा० ।
राग-वेलाउल
सुग ग्यानी सभालतु अव आप्पा अप्पणा ; निसनेही सु नेह सौ विनु त्रेहै वपणा । स्वारथ को संसार है सुख जैसा सपना , च्यार घड़ी की चटक है ज्युतिलका तपना । २ । सु० । धीरज आऊ छिन छिन ज्यु करवत कपना ; धरि सुबुद्धि श्रीधरमसी थिर शिव पद थपना ।। सु०।
राग-वलाउल
गुणग्राहक सो अधिको ज्ञानी, अवगुण ग्रहिवो सोइ अग्यानी अवगुण गुण रहइ एकहि आश्रय,
पिण विष तजि करि अमृपान । १ । गु० । परनिंदा करिके तु प्राणी, मल सुमुख क्यों करे मलान , अपनी करणी पार उतरणी,
तु क्यु फोगट करैय तोफान । २ । गु० । दूर सु ड्रगर वलती देखें, पग तल जलती क्यु न पिछान , धर्मसीख जो इतनी धारै, तो हुइ तेरै कोडि कल्याण । ३ । गु० ।