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धर्म बावनी
मैत्रीया प्रीति
सवैया तेवीसा
अपने गुण दूध दीये जल कुं, तिनकी जल नै फुनि प्रीतिफलाई । दूध के दाह कुदूर कराइ, तहा जल आपनी देह जलाई। नीर विछोह भी खीर सहै नहीं, ऊफणि आवत है अकुलाई। सैन मिल्य फुनि चैन लह्यो तिण, ऐसी धर्मसी प्रीति भलाई।।६।। आपही जो गुन की गति जानत, सोई गुनीनि को संग गहै है। जो धर्मसि गुण भेद अवेद, गुमार कहा सु गुनी कुचहै है । दूर सुदौर्यो ही आवें दुरेफ, जहा कछु चारिज वास वहै है। एक निवास पास न आवत, मैंडकु कीच कै वीचि रहै है ॥७॥ इणे भव आइ, जिणै धन पाइ, रख्यो है लुकाइ, भख्यो नहीदीनों। हाइ धंधे ही मैं धाइ रह्यो नित, काइ नही कृति लोभ सुलीनौ । कोल्हु के बैल ज्यु कोइ नहीं सुख, भूरि भर्यो दुख चिंत सुचीनो। जेण धर्मसी धर्म धर्यो न, कहा तिण मानस होइ मैं कीनो ।।८।। ईइति हैं जिण कु सबही जन, आस धरैं सब पास रहैया। पडित आइ प्रणाम कर, फुनि सेवत है सबने समझया। आइ गरज अरज करै, जु धरै सिरि आण भलै भले भैया। साच की वाच यहैं धर्मसी जग, सोइ बड़ौ जाकी गाठ रुपैया।।९।। उमगि उमगि कयों धर्म कारिज, आरिज खेत में वित्त ही वायौ। देव की सेव सजी नितमेव, धर्यो गुरु को उपदेस सवायौ। आचरतें उपगार अपार, जिणे जश सों दिगमंडल छायो। ऐसी क्रतूत करी धर्मसीह, भलैं तिण मानव को भव पायो॥१०॥