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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
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सवेया इकतीसा ऊपर सुमीठे मुख अंतर सुराखत रोय,
देखन के सोभादार भाटु कैसी चीभ है। गुनियनि के गुन ठारि, औगुन अधिक धारि,
जौलुन कहत कहुं तौलु मन डीभ हैं। तजि के भी प्राण आप और सुकर संताप,
ऐसो खलको सुभाउ मच्छिका सनीभ है। धर्मसी कहत यार मंडै जिण वासुप्यार, __मानस के रूप मानु दूसरो दुजीभ है ॥११॥
सवैया तेवीसा ऋद्धि समृद्धि रहै इक राजी सु, एक करै है ह हांजी हाजी। एक सदा पकवान अरोगत, एक न पावत भूको (खो) भी भाजी। एक कुंदावतवाजी सदा, अरु एक फिरें हैं पईस के प्याजी । यु धर्मसीह प्रगट्ट प्रगट्ट ही देखो, वे देखो वखत की वाजी ॥१२॥ रीस सुवीस उदेग वर्ष, अरु रीस सुसीस फट नितही को। रीस सुमित भी दात कुं पीसत, आवत मानु खईस कही को। रीस सुदीखत दुर्गति के दुख, चीस करंततहां दिन ही को। यु धर्मसीह कहै निसदीह, कर नहीं रीस सोइ नर नीको ॥१३॥
सवैया इकतीसा लीयौ नहीं कछु लाज, संचे पाप ही को साज ,
नरक नगर काज, गैल रुप गणिका । अंतर की वात ओर, ठगिर्व की ठकै ठौर,