________________
मुलतान मे चौमासा किया और सिन्धु देशके किरहोर नगर मे अनसन आराधनापूर्वक स्वर्ग सिधारे। . .
इस प्रकार हम देखते है कि कविवर धर्मवर्द्धनजी की गुरुपरम्परा में कई विद्वान् हो गये हैं और उस विद्वत् परम्परा में आपकी शिक्षा-दीक्षा होने से आपकी प्रतिभा भी चमक उठी और १६ वर्ष जैसी छोटी आयु में श्रेणिक रास की रचना करके आपने अपनी काव्य-प्रतिभा का परिचय दिया।
धर्मवर्द्धनजी ने १३ वर्ष की अल्पायु में ही जैन-दीक्षा ले ली थी इसलिए घर में रहते हुए तो साधारण अध्ययन ही हुआ होगा। दीक्षान्तर अपने गुरू श्रीविजयहर्पजी के पोस थोड़े ही वर्षों में आपने व्याकरण, काव्य, न्याय, जैनागम, आदि मे प्रवीणता प्राप्त करली। फिर अनेक ग्राम नगरों मे विहार करके धर्म-प्रचार के साथ साथ अनुभव को बढ़ाया। आपका विहार वीकानेर, जसलमेर, जोधपुर, चन्देरी, सरसा, देरावर, रिणी, लौद्रवा, बाड़मेर, सूरत, पाटण, खम्भात, अंजार, बेनातट, नवहर, फलोदी, मेड़ता, पाली, सोजत, उदयपुर, रतलाम, साचोर, राङद्रह, याटोदी, गारवदेसर, देशनोक, अहमदावाद, पालीताणा, आदि अनेक ग्राम-नगरों मे हुआ। शत्रुजय, आबू, केसरियाजी, लोद्रवा, जैसलमेर, सखेश्वर, गोड़ी-पार्श्वनाथ आदि अनेक जैन तीर्थो की आपने यात्रा की।