________________
-
दशार्णभद्र राजपि चौपई ३३३ शुचि कीजे स्नान संपाड़ा, सहु पहिरै नवि नवि साड़ा। हीर चीर पाटंवर हेम, पहिरौ सहु भूपण प्रेम ॥३॥ हिव आणि सिणगारो हाथी, साम्हेलो मोहें तिण साथी । गुड़डत कलाहिण गाजे, रोलम्ब कपोले राजे ॥४॥ काजल किलकें तनु काला, सबला परचण्ड सुडाला। सिंदूत्या सीस सलूक, जलधर में बीज झबूकै ॥ ऊपर सोहै अंबाड़ी, फूली जाणै फूलवाड़ी। ऊंचा परवत अणुहारा, आण्या गज सहस अठारा ।।६।। घणा मोला ऊचा घोड़ा, हर हीस होडा होडा । तेजी ऊछले बाडता, उचास भणी आपड़ता ॥७॥ मुंह पतलै पूठे मोटा, छछोहा ने कानें छोटा । सोने री साखत कसीया, राजी हुवै चढता रसिया ।।८।। सालहोत्र सुलक्षण साख, लेखा हय चौवीस लाख । सोल सहस घणे सनमान, राजें साथै राजान ।।६।। सुखपाल सहस श्रीकार, रथ तौ इकवीस हजार । सातसै अन्तेउर सार, सहु सज्ज हुआ सिणगार ॥१०॥ कहा पायक तेत्रीस कोड़ि, कर सेवा वे कर जोड़ि। छत्र चामर सोभा छाजै, रवि तेज दसारण राजे ॥११॥ वड़ी रिधि तणे विसतार, पुर बाहिर हिव पधारें। आव धरता आणंद, जिहा त्रिगड़े श्री वीर जिणद ॥१२॥
॥ दूहा ॥ "अबाड़ी थी उतस्या, महिपति अधिके मान । मदहर सुत पिण साथ ले, वंद्या श्री बधमान ॥१॥