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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
तुरग ज्यु चपल अति उरग ज्यु वक्रगति,
ठगत जिन जगत आया ठगाया। वचन बहु वंचन सत्य जहाँ रंच न,
कंचन कामिनी लोभ लाया । २१ क० खह की गेह इण देह सुनेह खिण,
छिन ही वदलात ज्युबदल छाया । आप प्रभात प्रभात प्रगट्यो प्रगट,
उदय धर्म-शील उपदेश आया । ३ । क०।
राग-वसत वह सजन मेरे मन वसत,
उनके गुण सुनि अग उलसंत । व० । तजि क्रोध विरोध हित त्रसंत,
पर निंदाने परहा नसंत । १। व०। खलता करि कोऊ कैसे खसंत,
हठता शठता तजि कहै संत । व०। प्रभुता अपणी नही प्रशसत फंतु,
आफि सीयाद. मेना फसंत राव० शुभ ध्यान, विज्ञान माहे धसंत,
वाणी अमृत रस वरसत । व०। करि विनय विवेक ' काया कसत,
साचा श्रीधर्मसी उहिज संत ३०व० -