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२२० धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली
सवैया तेवीसा तू उपगार करै जु अपार अनाथ अधार सबै सुखकंदा । जिते जगदेव करै तुझ सेव जिनेसर नाभि नरेसर नन्दा ॥ देख मुख नूर मिटै दुख दूर नसै अंधकार ज्यु देखि दिणंदा । श्री धर्मसीह कहै निसदीह उदौ करि संघ को आदि जिणंदा ।। दान दियो जिण आपणी देह को, लीनो परावत जीव लुकाइ । आवत ही अचिरा उदरै सब देस मे शाति जिणे वरताइ ।। पाल्यौ छ खंड को राज जिणे जिनराज भयौ पदवी टु पाइ । सेवहु भाव भलै धर्ममी कहै शांति जिणंद सवै सुखदाइ ।। ३ ।। प्रगट्टा विकटा उमटाति घटा सघटा विछटात छटा घन की। इक ताल में ताल रु खाल प्रणाल वहै इक ताल उतालनि की। चिहुं ओर चकोर सजोर सु भोर करै निसि सोर पहोरनि की। विनती करै राजमती पिउ सुअव वात कहा धर्मशीलन की॥४॥' ताल कंसाल मृदंग वजावत, गावत किन्नर कोकिल कूजा। ताइ ताथेइ थेइ भलै हित, नाचत है नर नार समूजा । कुडल कान झिगामग ज्योति, सु दीपत चंद दिनंदही दूजा । यौं धर्मसीह कहै धन दीह, वनी मेरे पास जिणंद की पूजा ।। जानत बाल गुपाल सबै जसु, देस विदेस प्रसिद्ध पडूरै, नाम ते कामित पामत हैं नित, देखत जात सबै दुख पूरैं। मोहन रूप अनूप विराजित, सोभत सुन्दर देह सनूरै, ध्यान धरौं हित सु धर्मसी कहै, पारसनाथ सदा सुख पूरै ।।