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धमवद्धन ग्रन्थावली चौवीस दण्डक स्तवन ढाल--आदर जीव क्षमा गुण पादर
पूर मनोरथ पास जिनेसर, एह करू अरदास जी। तारण तरण विरुद तुझ सामलि, आयो हुं धरि आस जीपू० इण ससार समुद्र अथागें, भमियो भवजल माहि जी। गिलगिचिया जिम आयो गिड़तौ, साहिब हाथे साहिजी पू० तुं ज्ञानी तो पिण तुझ आगै, वीतग कहिये वात जी। चौवीसे दंडके हुँ फिरीयो, वरणुतेह विख्यात जी ।। ३ ।। पू० साते नरक तणो इक दंडक, असुरादिक दस जाण जी। पाच थावर ने त्रिणि विकलेंद्रि, उगणीस गिणती आण जी।४।। पंचेंद्रि तिरजच नै मानव, एह थया इकवीस जी। वितर जोतिषी ने वैमानिक, इम दडक चौवीस जी ॥शापू० पंचिंद्री तिरजंच अने नर, परजापता जे होइ जी। •ए चउविह देवा माहे ऊपजै, इम देवै गति दोइ जी ॥ ६ ॥ पू०
असख्यात आउखें नर तिरि, निसचे देवज थाय जी। निज आउखा सम कि ओछे, पिण अधिकै नवि जाय जी ॥७॥ भवणपती के वितर ताई, संमूरछिम तिरजंच जी। सरग आठमें ताइ पहुचे, गरभज सुकृत सचं जी ॥ ८॥ पू० 'आऊ संख्याते में गरमज, नर तिरजंच विवेक जी। बादर पृथिवी ते वलि पाणी, वनसपती परतेक जी ॥६॥ व्पू