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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
दीपक-छप्पय अलग टलै अंधार, सार मारग वलि सूझ । जीव जंतु जोइ नें, सरव विवहार समूझइ ॥ मन संशा सहु मिटै, वलि पुस्तक बाचीजै । दिल सुद्ध गुरूदेव नैं, रूप दरसण राचीजै ।। वलि लाछि आइ वासौ वसइ, सुख पावै सहु सेवता । सहु लोक माहि दीस सही, दीवी परतिख देवता ॥ १ ॥
पर उपकार-घरण कटु सागोर दुनी दाम खाट केता केइ दाटे दरव,
नाट नाटे घणा साट बाट पाडै तिकौ काल वाटै वहै,
खट्यो सो पर कजू विरुद खाट ॥ १ ॥ कीया चढि चोट गढ कोट कवज किया,
वहस छल वल प्रबल किया बीया । हालिया किता ने किता वलि हालसी,
' जिया गुण किया तियां धन जीया ॥ २ ॥ हुकम सुहल चला उथल पथला हला,
करौ अकला गलां वात काइ। चहल वहला चलें चट्टक-दिन च्यार री,
भला री भला एक रहसी भलाइ ॥ ३ ॥ भार कोठार भडार लोभै भर्या,
वार सहु सारखी। कठे वहसी ।