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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली चौथो काल को सरूप, पंचमी पूगल रूप ।
छछो भेद वेद त अलोक को आकाम है। इण के त्रिवर्ग मान, केवल दरस ग्यान,
अस धर्म सीख ध्यान अतर प्रकास है। आप तू अनतनाथ, नाम है अरथ साथ,
पाचु ही अनंत कहे, ते भी तेरे पास है ।१४। पुल के संग सती, पुदल ही आई मिल,
___ ज्ञान दृष्टि जनी नाहि लगी दृष्टि चर्म चर्म । आतम अनंत ज्ञान सोई धर्म थान मान,
और ठौर दौर दौर, कर सोइ कर्म कर्म । विश्व मे रहे है व्याप, प्राणी करें पुन्य पाप,
आपकु न जाने आप, भूल्यौ फिरे भर्म भर्म । व्यावौ प्रभु धर्मनाथ, शुद्ध धर्म शील साथ .
धर्म की दुहाई भाई, जो न बोलें धर्म धर्म ॥१५॥ छोरि पटखड भार, चौसठि हजार नारि ,
छन्नू कोरि गाम छोरि तोरि नेह तंत तत । वाजे वाजें तीन लाख, लाख लाख अभिलाप,
तजिकै चौरासी लाख, तेजी रथ दति दति । चित्त मे वेराग धारि, वित्त के भडार छारि,
भीनी उपशात रस, कीनी मोह अत अंत । चाके गुण है अनन्त, धर्मसी कहै रे संत ।
संति की दुहाई भाई, जो न वोलें संति सति ।। १६ ।।