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. दशार्णभद्र राजर्षि चौपई
जग में धन धन जिन शासन धन वीर जिणंद, आवै जेहन वंदण काजै एहवा इंद, मैं अग्यान कीयौ अभिमान महा मतिमंद, मुझ रिद्धि अंतर जेहवो कूप समंद ॥५॥
अहो अहो इन्द्र आगे कीया केई धरम अनूप, लाधी वैक्रिय लबधि रचै मन मान्या रूप, धरम करू हिव हु पिण ते निश्चै मन धारि, वीर सु आवि करी नृप वीनति तु प्रभु तारि।६।
प्रतिबूधी मदहर सुत पिण नृप संगति पाइ, मलयाचल सगे तर वीजा पिण महकाय, कीधो लोच तिहा हिज सोची वात न काय, देई बिहुं ने दीक्षा शिष्य किया जिनराय ।
तुरित त्यागी वड वैरागी मोह न माय, जे करणी तें कीधी ते मैं कीनि न जाय, तें अहंकार पोतारो साच कीयो सुखदाय, पोतें इन्द्र प्रशंसा करि करि लागो पाय !८!
सहु रिधि सवर शक्र पहूंतो सरग मझार, वीर जिणेसर तिहा थी कीध अनेथ विहार, राय दशारण मदहर साधु भला ध्रमसील, सहु सुख पाया पायो केवल मोख सलील ।।