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चौवीसी
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२३ श्री पार्श्वनाथ स्तवन
राग-रामगिरी मेरे मन मानी साहिब सेवा। मीठी और न कोड मिठाइ, मीठा और न मेवा ॥१॥ आतम राम कली ज्यो उलसें, देखत दिनपति देवा।। लगन हमारी यासुलागी, रागी ज्यु गज रेवा ॥२॥ दर न करिहुं पल भर दिल ते, स्थिर ज्यु मुदरी थेवा । श्रीधर्मशी प्रभु पारस परस, लोह कनक कर लेवा ॥३॥
२४ श्री वीर जिन स्तवन
राग-वेलाउल प्रभु तेरे वयण सुपियारे, सरस सुधा हुं ते सारे। समवसरण मधि सुणि मधुर ध्वनि, बूझति परषद वारे ।। मुनत सुनत सव जन्तु जन्म के, वैर विरोध विसारे ॥१॥ अहो पैंतीस वचन के अतिशय, अचरज रूप अपारे। प्रवचन वचन की रचना पसरत, अब ही पंचम आरे ॥२॥ वीर की वाणी सवहि सुहाणी, आवत बहु उपकारे। धन धन साची एह धर्मशी, सब के काज सुधारे ॥३॥
२५ चौवीसो कलस
राग-धन्याश्री चितधर श्री जिनवर चौवीसी।। प्रभु शुभ नाम मंत्र परसादे, कामित कामगवीसी ॥१॥ रागवन्ध दुपद रचनापे, माहै ढाल मिली सी। रोटली गहुँ की सब राजी, मागे स्वाद कुमीसी ॥ २ ॥ सतरंस इकहत्तर गढ जेशल, जोरी यह सुजगीसी, श्री सघ विजयहर्प सुख साता, श्री धर्मसीह आशीशी ॥३॥
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