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छप्पय बावनी
खल खल न तजे मन खार, जरा हुई बूढी जोइ । पीलो हुवो पाकि, तूस खारौ फल तोइ ।' बूढी हुओ विलाड़, मूपका तौ पिण . मारे । सखरी द्यां धर्मशीख, धेख जे ,अधिको धारे 1 विष में मिठास न हुवै वली, दूधा ही सू पुट दीया । हठ ताणि आप न गिण हितू कासू तिण सूहित किया॥५२॥
मावटि सीरख सेज, पुजि घर आणे पाणी । धोइ सहु वासण धरै, रुडा चूल्ह रंधानी । पीसण खांडण प्रसिद्ध वले गो दूहि विलोवे। जीमण राधि जिमाव लाज सु जिमैं लुकोवै ।' सिर गुथि विनय संतोयणी, सासू जिठाणी सहू। कुल धर्मशील शोभा करण, बड़े कष्ट जीवें वह ॥ ५३॥
जल हुवै पिंड जल हुता, बेल जल ही ज वधारै । जल सहु रो जीवन्न, सहु ब्रह्मड सुधारै । नीर तहा ही ज नूर, आब तिहा आवादानी । सरस सुभिक्ष सुकाल, प्रघल वरसे जिहा पाणी । धर्मसीह सरब कारण धुरा, अम्बर पृथ्वी पवन अगि । पचभूत माहि अधिको प्रगट, जल उपरात न कोइ जगि ॥ ५४ ॥