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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली एक तो विचित्र चित्र शत्रु मित्र जंत्र मत्र,
राग रंग रस माझि जावता जगतु है ।। कर्म कला करण में धर्मसीख धरणे मे,
चातुरी तें भूपण है दुख न भगतु है । रे वेद पाठी ते चातुरी कु चित्त चाहै,।
चारू वेद चातुरी के चेरे से लगतु है ॥ १ ॥
समस्या—मान पर मित्र उ मेरा जीव राजी ह राजीव सम,
जासुमन मेल सो तो दूर ही नजीक है। प्यार धरि सीख सो मे मान कुल लीकजैसी,
ग्यार विन सीखसो मो लागति अलीक है। हित मुदे तिनको सो मोतिनि को हारमानु,
हेत विनु हार सोऊ तिनिके की सीक है। मान को तो वीरा मेरे हीरा के समान मानु,
बिना मान हीरा मेरे वीरा के सी पीक है!
समस्या-साहिबी न भावें ताकु साहिबी फकीरी है । देश की विदेश की निसे की न चिंता कछु,
हीनता न दीनता न काई तकसीरी है। सगकी न जग्गकी न ढग्ग की न चाहि काहि
काहू की प्रवाहि ना न कोई दिलगीरी है । सोच को सकोच को न पौच की आलोच मत्र,
आप है म्वतंत्र काहू जोर न जंजीरी है। .