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कुण्डलिया वावनी
२६ नयणा हुवै निहाल, हाल दे हीयो हरखें। वर अमृत बैंण, प्रीति अति ही चित्त परखै । . वि घड़ी मिलि वेसता,, लहै सुख नहीं ते लेखौ। धन दिन गिण धरमसीह, दरस सैंणा रो देखौ । दे०३६।
धनवान धनवंता री धर्मसी, आवै सहु धरि आस । . सरवर भरीयो देख सहु, पंखी वेसैं पास । पखी वेसैं पास, आस पिण पुगइ इण थी। सूको सरवर सेवता, तृपा काइ भाजे तिण थी । दीय किसुदलदरी, सवल रीझवीयौ संता। . सगलौ . ही ससार, धरै आस धनवंता । ध०४०
कृपणदान न दीये काइ कृपण नर, सहु इम कहै संसार । सात थोक कहै धर्मसी, द्य ओहिज दातार । द्य ओहिज दातार, वार' छ काठा बीडी । द्य उतर छ कुमति, पूठ छ पात्रा पीडी। धरि छ लछि नै घोर, कटुक गाल्या दे कदीये । आडौ पग छ आइ, निपट किम कहो छो न दीय न०४॥ पर हुंती तप पामिन, निपट दीये दुःख नीच । सूरिज तपता सोहिलो, पिण वेलू बालें बीच । वेलू बालैं वीच, नीच नर है बहु बोलो ।
उत्तम नर रहै अटक, गालि चतुरत ज गोलो । १ पाठान्तर-द्वार