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छप्पय बावनी
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कर्म रीस भर्यो कोइ राक, वस्त्र विण चलीयौ बाटे । तपियौ अति तावडौ, टालता मुसकल टा” । बील रुख तलि बसि, टालणो माडयो तड़कौ । तरु हुती फल बेटि, पडयो सिर माहे पड़कौ । आपदा साथि आग लगी, जाय निरभागी जठे । कर्मगति देख धर्मसी कहै, कहो नाठो छुट कठे ॥ १३ ॥
लक्ष्मी किणहीक लाभि, खरची दीधी वली खाधी। कहीं नहीं कारण किणे, बहसि किए के बाधी । दातारै धुरि देखि, दान रो लाधो दद्दो । सुव ननौ संग्रहै, माहरै इण सु मुद्दो । दातार घर दिन दिन ददौ, नित-सु बा घर ननौ । बिहु जणा जाणिं बहसे बहसि, पालैं इण परि पडवनो ।१४)
लीजें पर गुण लागि, लागि नै अन्त न दीजै । दीजै ऊंचौ दाव, दोप अणहुत न दीजै । कीजे पर उपगार, कार निज लोप न कीजै । खरै हित खोज जै, खोट वाते मत खीजै । भीजे सुसाम (१) धीजै भला, पीजै जल छाण्या पर्छ । ' धर्मसीख सुबुद्धि मनमें धरें, इतरा थोके अवगुण अछ.।।१।।
एक एक थी एक एक थी
अधिक सबल सूरा संग्रामे । अधिक नकल ने ठाह' नामे ।