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प्रस्ताविक विविध संग्रह
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छप्पय रावण करता राज, लीक लका ते लागी । जीवतें किसन जी, द्वारिका नगरी दागी ।। चावा रवि चंद नइ, राह आवी नै रोके । पाडव कौरव प्रसिद्ध, सहु पडिया दुख शोकै ॥ सकजो न कोइ मो सारिखौ, बहु मुरख गर्वे बके। धर्मसीख धारि धोखो म धर, जीती कुण जाइ सके ॥१॥
छप्पय गुर थी लहियं ज्ञान, शास्त्र सहु तत्त सिखावइ । वलि सगली ही वस्तु दोष निरदोप दिखावें । चूल्हा रौ जे चंद कर, तिण काज कला धर । गुरू सेवा कर गिण्या, नहीं उसरावण को नर । वलि अलग टालि छठउ वर्ग, अधर होठ अलगारहै। त्यु रहै अलग निंदा तठे, कवित सीख साची कहै ॥ २ ॥
“शोभनीय वस्तु"-छप्पय नरपति शोभा नीति, विनय गुणिजन त्रिय लज्जा। दपति दिल संतोष, शोभ गृह पुत्र सकज्जा । वचने शोभा साच, बुद्धि शोभा कविताइ । वपु शोभा विज्ञान, शान्ति द्विज शोभ बताइ । * सकज की शोभ अधिकी क्षमा, शोभ मित्र राखें शरम । गृहवास शोभ संपति सुधन,
सबहि शोभ निज निन धरम ॥२॥