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धर्मवद्धन ग्रन्थावली
म करे रवि साम्हो मल मूत्र, लखण म करिजे लावा लूत्र । पाप तजे तु सकले पूत्र, सांभलिजे शुभ शास्त्र मूत्र ॥२१॥ मुंडा सुपिण करे भलाइ, परिहरि पाचे जेह पलाइ । वैठा बात करें वेइ जी, तेड्या विण तिहा म हुवे तीजी ।।२२।। कारिज सोच विचारी कीजे, खता पड़या ही अति मन खीजे । सुधयं काम कहे सावास, न करे याचक निष्ट निरास ।।२३।। न करे मूल किण हि री निंदा, छावीजें वलि गुरु रा छंदा । नाम लोपी ने न हुनें निगरा, नवि थापीजे कीड़ी नगरौ ॥२४|| आदर दीजे माणस आये, जिहा नहीं आदर तिहां मत जाये ! हसजै मत विण कारण हेत, कपड़ौ पिण म करे कुवेत ।।२५।। बहु विषमे आसण मत बेस, परघल अणजाण्या मत पेसे । पाणी अति ताणीय न पीजै, सारौं ही दिन सोइ न रही।।२।। वाधे मत मल मूत्र अवाधा, खाजे मत फल जीवा खाधा । वसत पराइ मतिय विछोड, छानी पर नी गांठ म छोड़ ॥२७॥ जिमिर्ज अगले भोजन जरीय, शत्रु न हुजै कारज सरीय-। , पेने मत अण कलीय पाणी, तोडे प्रीति अता मति ताणी ||२८|| . घर मे मत खा फिरतो घिरतो, न कहे मरम बोलीजे निर तौ। तारुसु मत तोड़ तिरतो, वडा र काम म थाए विरतो ! पंथ टल तब लीजें पूछ. मोटा साम्ही म मौडे मुंछ। तुच्छ वचन स कहै तुकार, मत वेमै वलि ठासणी मार ॥३०॥ , भोजन उपमा म कहे मुडी, अपनी जाति विचारे ऊंडी। जिग साभलतां उपजे लाज, एहो म कहे वैण अकाज ||३||