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१४४ धर्मवद्धन ग्रन्थावली राज श्री अमरसिह नाम सिंह सम है पै
मूरापन कैसे सिंह करिहै बरावरी ॥१
दोहा खड लाराखेसि, अमरेसे लीधी उरा। राख्यो नही बहु रोस, दोइ आखर बगसे दीया । १ । अमरेसे बाहयो सु असि अटक्यौ अरि उर आइ । तिण अरि धार बाधी तुरत, जोयौ मन्त्र जगाय ॥२॥
काव्य श्री मच्छ्री अमरादिसिंह भवता नूनं रणे बैंरिणा। वामत्तारित मित्थमत्रमयकावाकिं वदंत्या श्रुता । मन्ये नाह मिति त्वया त्वति तरां तत् स्त्रीयु सिक्तंदकं । नोचेन्निर्जरवत् साद प्रवहति स्त्री दगंभः कथं ।। ४ ।।
अमृतध्वनि सबल सकल विधि सबल सुत, गढ़ जेसाण गरिद ।
अमरसिंघ इल में अखी, सोभत जाणि सरिंद ॥ १ ॥ चालि-तौ सोभ सुरिन्द दुतिहि दिणंद इंविण धनबहानसमंद) ,
दुथिय दरद दलित दरिद ढसहि दिशिंद। दृधितां हद देव विरूढ दल बलरूह ढ्ठ द्धिरह दिढ़
असि वृन्द । द् दुदभि नव दुसह सब दुयण दह्द दहवट दढ । दूर सिस हद हिल विहसद्द दुनिय कुमुदद् ददीपति चन्द ददेखि नरिंद दिन कविंद
धे जयसद् द्दीरघ आउख तास ||२|| स० ।।