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छप्पय बावनी
आज के मित्र
आखि लाज करि आज, रीति रस री रुख राखें। हसते लातें सहीये, भेद सुख दुख रा भाखै । अलगा हुवा अॅस, नेह तिल मात न आण । जुदा न गिणता जीव, जीव परदेशी जाण । आजरा मीत बहुला इसा, कोइ गिणे नहीं हित कीयौ। कही इस मित्र धर्मसीह कहै, हे0 किम विकसहियौ ॥२०॥
स्वार्थ
अफल रुख अटकले, परा उड जाये पंखी। सर सूको स पेख, कोइ न हुवे तसु कंखी। वले पुहप विणवास, भमर मन माहि न भावै । दव दाधो वन देखि, जीव सहु छोडि जावै । निरधना वेस नाणे नजरि, किणरौ वलभ कवण कहि । म्वारथै आवी सेवे सहु, स्वारथ रौ संसार सही ॥ २१ ॥
कहै पाखा सुणि केकि, कत तुझ लागि केडे । करि कु मया तु काइ, फूस ज्यु अम्ह पा फैडै । सुन्दर माहरे सग, कहै सहु तोने कलाधर । नहीं तर खुथड़ो निरखी, नेट निन्दा करसी.नर । अम्ह घणी ठाम बीजी अवर, धरमी आदर करि धरै। माहरै सुगुण सोभा मुगट, श्रीपति पिण करसी सिरै ॥२२॥