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कुण्डलिया वावनी
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अधिको रंच न एक, देखि मथीयौ दधि दोऊ । लाधि गोविद लाछि, शभु लाधो विप सोऊ । वखत तणी सहु वात, लाख करें केइ लटुवा । कोइ माटीपण कर, खपै सहु करिवा खटवा । ख० १५२।
सूम को सम्पदा सु वा केरी सम्पदा, नपुंसक री नारि । ना धर्मसील धर सके, न भोग भरतारि । न भोगवं भरतारि, कीया था पातिक केइ । इण घरवास आइ, बोइ नाख्या भव बेइ । कर फरसै रस करें, आस नहु फलें अनेरी । धर्मसी कहै धिग स, संपदा सुबा केरी । सु वा०५३।
घट बढ ह्यवर जिण घर हीसता, गज करता गरजार । किण हिक दिन तिण घर करें, पडीया स्याल पुकार । पडीया स्याल पुकार, वार नहीं सरखी वरतें । चढत पड़त हिज चलें, चंद जिम विहु पखि चरतें । चौपड़ केरै चाव, घटत बढ़ती है घर घर । सुणि तिण विध धर्मसीह, हिंसता जिण घर हयवर । ह०५४॥
- मर्यादा लघीजे नहीं लोक मैं, लाज मर्यादा लीक । जायै पाणी जू जूओ, न करीजें जो नीक । न करीजें जो नीक, लीक नहु सायर लघु ।