________________
३४
धर्मवद्धन ग्रन्थावली मरयादा मेटता, सदा टालीजै संधै । वरतीजै विवहार, कदे निज रूढि न कीजे । सदाचार धर्मसीह, लीह कहो केम लघीजे । ल० ॥५५॥ क्षमा करंता कोइ खरच, लाग नहीं लगार । मिट कदा यह मूल थी, सैण हुवै संसार । सैंण हुवै संसार, सार सहु मैं ए साचो । किण सारु करें क्रोध, कुह्यो काया घट काचौ । सफल हुवै धर्मसीह, धरम इण सीख धरंता । लहै मोह लोक मे, कहै सहु क्षमा करता । नमा० ॥५६॥ अक्षर बावन आदि दे, कवित्त कुंडलिया किद्ध । धरम करम सहु मे धुरा, प्रस्ताविक प्रसिद्ध । प्रस्ताविक प्रसिद्ध, शहर जोधाण सल्हीजे । सतरसे चोतीस, भलै दिवस भा बीजै । विजयहर्ष वाचक्क, शिष्य धर्मवद्धन साखर । कीधा वावन कवित्त, आदि दे वावन आखर । ॥ ५७ ॥
इति कुंडलिया बावनी ।
-: 00: