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दलियटुरियदाह लद्वससिद्धिलाह , जलहिमिव अगाह व दिमो पासनाहं ।। ३ ।।
अपभ्रांसिका तुहु राउल राउलह सामि हुँ राउल रंकह, हिणसु दुहाइ सुहाइ कुण सुमड मा अवहीरह । पिक्खड जुगू अजुग्गु ठाणु वरसतउ कि घणु, पत्तउ पड़ जड होसु दुहियसा तुह अवहीरणु |८||
(श्रीगौडीपार्श्वनाथस्तवनम् ) राजस्थान का डिंगल साहित्य अत्यंत गौरवमय है। इसके गीत भारतीय साहित्य की विशिष्ट वस्तु है। गीतो की वर्णन-शैली एवं उनकी छन्द रचना अपने आप मे स्वतंत्र है। डिंगल की गीत सम्पत्ति है भी अति विशाल और इसकी अभिवृद्धि मे केवल चारणो ही नहीं, अन्य वर्गो एवं कवियों का भी पूरा योगदान रहा है। महोपाध्याय धर्मवर्द्धन के डिंगलगीन उनकी समस्त साहित्यसामग्री में अपना विशिष्ट स्थान रखते है। उन्होने काफी डिंगल गीत लिखे है और
और उनका अर्थ-गाभीर्य विशेष रूप से ध्यान मे रखने की चीज है। यहा उनके कुछ डिंगलगीत उदाहरण-स्वरूप प्रस्तुत किए जाते है :
१. सूर्य स्तुति हुढे लोक जिण रे उद, मुर्दै सहु काम है, पूजनीका सिरे देव पूजौ।