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[३६५] (अमरकुमार) सुरसुन्दरी रास का अन्त्य भाग [ ढाल १२-इण पर भाव भगति मन आणी ] धरम शील जिण साचो धार्यो, वलि नवकार संमायों जी। सुरसुन्दरिए सर्व समायों, निज आतम उधार्यो जी,
एक सदा जिन धर्म अराधो॥६॥ 'शीलतरंगणी' ग्रन्थ नी साखे, ए रास अति लाखे जी। धन जे शील रतन नै राखै, भगवत इणपर भास जी ॥१॥ संवत सतरै वरस छत्तीसै, श्रावण पूनिम दीसै जी। एह संबन्ध कह्यो सुजगीस, सुणता सहु मन हीसे जी ॥८॥ गणधर गोत्रो गच्छपति गाजे, जिनचंद्रसूरि विराजे जी। श्री बेनातट पुर सुख साजै, चौपी करी हित काजे जी ॥६॥ साखा जिनभद्रसूरि सवाई, खरतर गच्छ बरदाई जी। पाठक साधुकीरति पुण्याई, साधसुन्दर उवझाई जी ॥२०॥ विमलकीरति वाचक बड़ नामी, विमलचन्द यश कामी जी। वाचक विजयहर्ष अनुगामी, धर्मवर्द्धन धर्म ध्यानी जी ॥१॥ .
उपदेश हिया में आणी, पुण्य करे जे प्राणी जी। · आवी लाछि मिलै आफाणी, साची सद्गुरु वाणी जी ॥१२||
बारमी ढाल कही बहुरगे, चौथे खंड सुचंगे जी। जिन धर्मशील तणे शुभ सगे, आनंद लील उमगे जी ॥१३॥
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