________________
२००
धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली हरख्यो मुझ हिवडी हेवए, साहिब नी न तजु सेव रे। दिल सुध मुझ एहिज देवए, टलिस्यु नहीं ए लही टेवरे ।५) मुन० इण मन मोहन ऊपर सखि हुंवारी वार हजार । देस विदेशे दिल्ल मे सखी साभरिस्य सौ वार रे ।। इक इण हिज सुइकतार रे, हीयो नो अतर हार रे। कदे ही नहिं लोपिस कार रे, बात सी कहिये वार वार रे ।मु० गाजे नित गौड़ी धणी सखि अकल सरूप अवीह । भवना भय गय भाजिवा सखी सादूलो ए सीह रे ।। लोपे कुण एहनी लीह रे, जपतां जस सफली जीह रे । द्य विजयहरप निसदीह रे, धरि हेत कहै धर्मसीह रे । ७ मुनै।
पाव जिन स्तवन
ढाल-धारा ढोला रो त्रिभुवन माहे ताहरौ हो,
सुजस कहै सहु कोइ । जिन रा राजा । देव न कोई दूसर हो,
होड़ जे ताहरी होइ । जिन रा राजा। सुनिजर कीजे हो सुजान, सेवक कीजै दीजै दिन दिन वछित दान मन रा मान्या ॥१॥ आकणी देवा मांहे दीपती हो, तुपरता शुद्ध पास । सोहे तारा श्रेणि में हो, एकज चन्द आकाश ॥ २ ॥ जि० सु०॥