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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली तुरत हिज परखि धर्मसी, तुला धडी जणावै सीस धुणि । हलको तिकोज ओछो हुवे, गरुओ कहिजै नमण गुण ।।२।। मन मे न धरै मैल वर्दै वलि मीठा वायक । देह आपसु दमै, गरव विण सहु गुण ज्ञायक । आदर पर उपगार, सत्यवादी सन्तोषी। न करे निंदा नेट, चलें निज कुलवट चोखी। न्याय रीति तिण दिसि नजर, देखे नहीं स्वारथ दिसा। धर्म सील विनय सूधौ धरै इण जुग के विरला इसा ॥३॥ सिला सेज सूवणे, वले वन धगहने वासा। नगन गगन गुण मगन, अगनि जग ने अभ्यासा। जटा धरै केई जूटा, मुड के घुरड मुडावै । बहुली केइ बभूत, लेइ अगे लपटावै । जिण जिणै रूढि झाली जिका, तपौ तपावौ कष्ट तन । साच हूँ मन्न धर्मसी सफल, मन झूठ सहु झूठ मन ।। ४ ।। धंध धरे करि द्वप, वात मे हेत वितौड़। ' आप कियो ते अवल, वले पर किया विखौड़े। ' छत्ता गुण छावर, अगुण अछत्ता ही आखें ।
कोइ हितरी कहै, रीस मन माहै राखें । वलि लहै सुख परक विघन, काम पगे पग कूड रौ। धर्मसीय कहै तिण रे धरम, बोल्यो खातौ बूड रौ ॥ ५ ॥ अटकलि कुल आचार, शोभ अटकलि सक जाइ । विद्या अटकलि वित्त, देह अटकलि दे खाइ ।