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चौवीसी
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काम क्रोध प्रवेश न पावृत, गेह सुज्ञानी आप गयो री। दुश्मन सकल निकल गये दूरे, सबल प्रताप न जाइ सह्योरी ॥२॥ अव अपने घर साहिब आयौ, चरण न छोड़ चित्त चटौरी। शासन बगस्यौ जिन धर्म सीमा,
करिहों में पिण आप कह्यौरी ॥३॥ह० ॥
७ श्री सुपा जिन स्तवन
राग-सारग-वृन्दावन सही, न तजु पार्श्व सुपास कौ ॥१०॥ सकल मनोरथ पूरण सुरमणि, सुरतरु लील विलास को ||न०॥२॥ सुरनर और की करि करि सेवा, हुइ थानक कुण हास को। अधिकौ लही साहिब को आदर, दास हुवे कुण दास कौ ॥२॥ शुद्ध समकित धर जिनवर सेवा, करण पातिक नास कौ । श्री धर्मसीह कहै मोमन मधुकर, प्रभु पद पद्म सुवास कौ ॥३॥
८ श्री चद्रप्रभु जिन स्तवन
राग-मारु चदप्रभु नी कीजइ चाकरी रे, चित चोखे हित चाहि । सूधी कीधी सेवा स्वामिनी रे, लीधौ तिण भव लाह ॥१॥च० चाकर होइ रह्यो जसु चंद्रमा रे, लछन मिशि पग लाग । स्वामीनै सेवक उपमा सारखी रे, जुगति नहीं इण जागि ॥२॥च० प्रम नी ठामै प्रभु एहवौ पढ्या रे, योग्य अर्थ ए जाण । श्री धर्मशी कहै सूधो समझिये रे, पंडित कहै ते प्रमाण ॥३॥