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धर्मवर्द्धन ग्रन्थावली सतरज सजण दुजण सजे,
जोड ख्याल धर्मसीह जगि ॥ ४२ ॥ फल किहा थी विण फूल, गाम विना मीम न गिणजे । गुरु विण न हुवै ज्ञान, विगर पूजो किम विणजे । पिया विना नहीं पुत्र, बुद्धि विण शास्त्र न बूझ । भीत विना नहीं चित्र, सुष्टि विन वस्त न सूम। विण भाव सिद्धि न हुवै, रस विण न कर कोई रुख । शोभा न काइ धर्मशील विण, सतोपह विण नहीं सुख ।।४३॥
२० वर्ण ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शुद्र, चिहुं वरण सभाली । कदोई कुम्भार कठी मरदनीया माली । तंबोली सुथार ठीक भैसात ठठारू । नव नार इण नाम कहै हिव पाचे कारु । गाछा सुनार छीपा गिणौं, मोची घाची इण महि । धर्मसीह कहै निज निज धरम, समझौ वरण अढार सहि ॥४४॥
धन को सार्थकता भाया भीड भाजता, पोखता उत्तम पात्रे । प्रिया हुंस पूरता जावता तीरथ यात्रे । वीवाहे विलसता दुजण जड़ काढण दावै । संतोष तां सैंण कविय मुख सुजस कहावै । इण आठ ठाम खरच्यो उत्तम, मत चीहा पैं आप मन । साधिजे काज सु क्रियार था, धनधन धर्मसीह सोइज धन ॥४॥