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धर्मवन ग्रन्थावली
लोद्रवापार्श्व स्तवन
विलसे ऋद्धि समृद्धि मिली -राहनी
धन धन सहु तीरथ माहि धुरै, पर सिद्ध घणी श्री लोद्रपुर । भले भावे आवे यात्र वगा, सुखदायक सेवो सहसफणा ॥ १ ॥ केवल जिम दूर थकी दीसै, हीयडौ जिन देखण ने हीं । वाखाणै सहु विश्वाविमै यात्रा दीधी ए जगदीस ॥ २ ॥
वीसम श्री जिनराज तणी, फलदायक प्रतिमा सहसफणी । घनस्याम घटा जिम शोभ वणी, वाह वाह अगी छवि अंग वणी ३ चउ जिणहर चउगइ दुख चूर, पंचम पंचम गति सुख पूरें । अष्टापद त्रिगढे शोभ इसी, कुण इण समओपम कहुंअ किसी ||४|| केसरि चंदन घनसार करी, धोतीय अछोती अंग धरी । पूज्यां मिथ्यामति जाय- परी, शुभ पामे समकित रतन सिरी || प्रणम्यां सहु पीड़ा दुरि पुलं, छल छिद्र उपद्रव को न छलै । दुख दोह्ग ढालिट दूर ढलें, मन वंछित लीला आइ मिलै ||६|| ॥६॥ जेसलगढ गुरु गच्छपति जाणि, तिहा आया श्री संघ मुलताणी । संघ तिण मु श्री जिनचन्द, प्रणम्या प्रभु पास नवल नूरै || सतरं चम्मालै चैत्र सुढे, महिमा मोटी तिथि तीज मुदै । खरतर गुरु गच्छ सोभाग खरै, पाठक धर्मसी कई एण परे ॥८॥
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