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धुलेवा ऋषभदेव छन्द
दोहा
सत्य गुरू कहि सुगुर रा, प्रणमु मन शुद्ध पाय। हुता मूढ ते पिण हुआ, पण्डित जासु पसाय ॥ १ ॥ सेवा लहिजै सुगुर री, पुण्य उदै परतख । ज्योति अधिक दीधी जिण, चावी तीजी चख ॥२॥ जिकौ न पूरौ जाणतो, ठठौ मींडी ठोठ । वाचै अविरल वाणी सु, पुस्तक भरिया पोठ ।।३।। दीपक जिण हाथै दिय, गुरे बतायो ज्ञान । धरम करम माहे धुरै, धरिजइ तिणरो ध्यान ॥ ४ ॥ प्रथम नमी गुर जिण प्रथम, गाउ तसु गुण ग्राम । कविजन कंठ शृंगार कु, दीपै मोतीदाम ।। ५ ।।
मोतीदाम छन्द दिप गुण निम्मल मुत्तियदाम,
से मन शुद्ध तिको हिज स्वाम । सुरासुर सर्व करै जसु सेव,
दिय सुख वछित ऋपभदेव ।। ६ ।। केइ जगि देवल देवा कोडि,
हुवै नहीं कोइ इयें री होडि ।