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शास्त्रीय विचार स्तवन संग्रह २८१ जिण साते क्षय की ते नर क्षायिकी,
तिणहिज भव शिव अनुसरै ए।' , आगलि बांध्यो आय तौ ते तिहां थकी,
तीजे चौथे भव तर ए ॥१६॥
ढाल-४ इण पुर कबल कोई न लेसी पंचम देश विरति गुणथान, प्रगटै चौकड़ी प्रत्याख्यान । जेण तजै बावीस अभक्ष्य, पाम्यौ श्रावकपणौ प्रत्यक्ष ॥१७॥ गुण इकवीस तिके पिणधारै, साचा बारै व्रत संभार । पूजादिक पट कारिज साधे, इग्यारै प्रतिमा आराधै ॥१८॥ आरत रौद्रध्यान है मंद, आयौ मध्य धरम आनंद । आठ वरस ऊणी पुव कोडि, पचम गुणठाणे थिति जोड़ि ।।१६।। हिव आगै साते गुणथान, इक इक अतरमहूरत मान । पांच प्रमाद वस जिण ठाम, तेण प्रमत्त छठौ गुण धाम ॥२०॥ थिवरकलप जिनकलप आचार, साथै पट आवश्यक सार । उद्यत चौथा च्यार कपाय, तेण प्रमत्त गुणठाण कहाय ।।२१।। सूधौ राखै चित्त समाध, धर्म ध्यान एकान्त आराधै। जिहा प्रमाद क्रिया विधि नास, अपरमत्त सत्तम गुण भास।२२।
ढाल-५ नदि जमुना के तीर, राहनी पहलै अंशै अट्ठम गुणठाणा तणे, आरंभै दोइ श्रेणि सखेपै ते भणै। उपशम श्रेणि चढ जे नर है उपशमी,
क्षपक श्रेणि क्षायक प्रकृति दशक्षय गमी ।२३।