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कुण्डलिया वावनी
बुढापा च्यारजणानै सुणि चतुर, सोहै जरा सिंगार। राजा मुहती वैद रिपि, गरढ पण गुणकार । गरढ पणे गुणकार, सार बहु बुद्धि रसायण । विणसैं मल्ल वेसीया, गिणी तिम चाकर गायन । करै घणी जौ कला, मन्न तोइ किण न माने । कहै धर्मसी यु करै, जरा आइ च्यार जणा नै च्यार०।२७॥
बाप
छत्र करैं ज्यु छाहड़ी, तुरत हरै सहु ताप । छोरू नै गुणकार छै, बूढा ही मा-बाप । बूढा ही मा-बाप, आप जीवै ता अमृत । सखरी आखें सीख, साचवे घर में सुकृत। लाज काणि करै लोक, तरुण तिय सोह रहै तिम । धरै हित धर्मसीह, जतन बहु छत्र कर जिम । छ० ॥२८॥
जूला * सो कीधी जिका, कही न जायें काय । नल पाडव सिरखा नृपति, मूक्या हार मनाय । मूक्या हार मनाय, हार करि अलगा होवौ । कलह सोग वहु कुजस, जए साम्है मत जोओ। हासो नै घर हाणि, सुख पिण कदै न सूवै । सुणज्यो कहै धर्मसीह, जिका कीधी छै जज०।२९।.