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उपलम्भ
बौर-र्शनम्
२७ होने के पहले कार्य का नहीं प्राप्त होना, (२) कारण की प्राप्ति होने पर, (३) [ कार्यका ] प्राप्त होना । (४) [ कार्य ] प्राप्त होने के बाद कारण का प्राप्त नहीं होना और जिसके फलस्वरूप (५) [ कार्य का ] प्राप्त नहीं होना ।
विशेष-बौद्धों ने अन्वय-व्यतिरेक की विधियों को ही तोड़-मोड़ कर पंचकारणीविधि का निर्माण किया है। वैसी कोई इसमें नवीनता नहीं मिलती। कार्य और कारण की अप्राप्ति और प्राप्ति-दोनों से पांच अवयव ( Combinations ) निकाले गये हैं। अप्राप्ति से तीन अवयव और प्राप्ति से दो। इन पांचों को मिलाने के बाद ही कार्यकारण का निर्णय होता है, पृथक्-पृथक् नहीं । इन्हें इस प्रकार समझें
अनुपलम्भ (१) उत्पत्ति के पूर्व कार्यानुपलम्भ (४) कारणोपलम्भ होनेपर( २ ) कारणानुपलम्भ होने पर- ( ५ ) कार्योपलम्भ,। ( ३ ) कार्यानुपलम्भ ।
हम देखते हैं कि ( १ ) [ धूम की ] उत्पत्ति होने के पहले धूम का ज्ञान नहीं होता, अब ( २ ) अग्नि देख रहे हैं तो ( ३ ) धूम का भी ज्ञान होता है। धूम का ज्ञान हो जाने पर जब ( ४ ) अग्नि की सत्ता नहीं रहे तो वैसी अवस्था में ( ५ ) धूम की भी सत्ता मिट जाती है । इन पांच अवस्थाओं से पार करने के बाद धूम-धूमध्वज ( अग्नि ) में कार्यकारण का निर्धारण हो जाता है।
(४. तादात्म्य से अविनाभाव का ज्ञान ) तथा तादात्म्यनिश्चयेनाप्यविनाभावो निश्चीयते। 'यदि शिशा वृक्षत्वमतिपतेत्', स्वात्मानमेव जह्यादिति विपक्षे बाधकप्रवृत्तेः। अप्रवृत्ते तु बाधके भूयः सहभावोपलम्भेऽपि व्यभिचारशङ्कायाः को निवारयिता? शिशपावृक्षयोश्च तादात्म्यनिश्चयो 'वृक्षोऽयं शिशपेति' समानाधिकरण्यबलादुपपद्यते । न ह्यत्यन्ताभेदे तत्संभवति । पर्यायत्वेन युगपत्प्रयोगायोगात् । नाप्यत्यन्ताभेदे, गवाश्वयोरनुपलम्भात् । तस्मात्कार्यात्मानौ कारणात्मानौ अनुमापयत इति सिद्धम् ॥
इसी प्रकार तादात्म्य का निश्चय करने के बाद भी अविनाभाव का निश्चय होता है । [ उदाहरण स्वरूप, “शिंशपा वृक्ष है' इस उदाहरण में शिशपा और वृक्ष में तादात्म्यसम्बन्ध है, दोनों की आत्मा, आधार या धर्म एक ही-वृक्षत्व है। शिशपा में भी वृक्षत्व ( वृक्ष का सामान्य धर्म ) है और वृक्ष में भी । दोनों के सामान्य धर्म एक ही हैं ] । यदि इस प्रकार विरोधी वाक्य ( विपक्ष-वाक्य ) कहा जाय कि 'यदि शिंशपा वृक्षत्व का अतिक्रमण कर दिया जाय ( = उससे पृथक् हो ) तो बाधक-वाक्य ( असंगति ) की