Book Title: Jain Sahitya ka Itihas Purv Pithika
Author(s): Kailashchandra Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
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प्राचीन स्थितिका अन्वेषण मांसको न तो गाँवमें ही ले जाना चाहिये और न बच्चोंको ही उसके पास आने देना चाहिये। स्वस्त्ययनके बाद इसको प्रसाद रूपसे खा लेना चाहिये । कुछका मत' है नहीं खाना चाहिये।
एतरेय ब्राह्मणमें लिखा है कि जो यजमान सोमयागकी दीक्षा लेता था वह सभी देवताओंके सामने अपने आलम्भनके लिए तैयार होता था और अपने बदलेमें पशुको क्रय करता था। इसका मतलब यह हुआ कि यज्ञमें जो पशु भेंट दिया जाता था वह यजमानका प्रतिनिधि था। प्राचीनकालमें यह विवाद हुत्रा था कि सोमयागके पहले अग्नि और सोमको जो पशु भेंट किया जाता है, उसका माँस खाना चाहिये या नहीं ? क्योंकि वह पशु यजमानका प्रतिनिधि होता था, अतः उसका मांस नरमांस हुआ
और नरमांसका खाना कहाँ तक उचित है ? ___एतरेय ब्राह्मणमें इस विवादका निरसन करते हुए लिखा है कि 'अग्नि और सोमकी मददसे इन्द्रने वृत्रका वध किया था। अतः इन्द्रने सन्तुष्ट होकर अग्नि और सोमको यह वरदान दिया था कि सोमयागके पहले जो पशु भेंट किया जायगा वह तुम्हें मिलेगा। अतः वह पशु देवताका भक्ष्यमात्र है, यजमानका प्रतिनिधि नहीं है।'
मंत्र-ब्राह्मणात्मक वेद प्रतिपादित उक्त यज्ञ धर्मकी क्रमसे किस प्रकार वृद्धि होती गई, और उसका विस्तार कहाँतक हुश्रा इसका एक चित्र कवि हर्षके नैषध काव्यसे यहाँ देकर इस चर्चाको समाप्त करेंगे। नैषधके १७ वें सर्गमें कविने कलियुगके निषध देशमें जानेका वर्णन करते हुए लिखा है-जब कलि राजा
१. अस्य पशोः हुतशेषं न प्राश्नीयात् । अन्यत्र इच्छातः प्राश्नीयात् वा।
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