________________
५८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
उन्हीं दिनों भारतीय दर्शनोंका अध्ययन करनेके लिए एक विदेशी विद्वान् (नाम याद नहीं) भारत आये हुए थे । इस निमित्त वे अनेक विश्वविद्यालयोंमें गये और सभी दर्शनोंका अध्ययन करके सामग्री एकत्रित की । वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालयमें भी आकर ठहरे। उनकी इच्छा थी कि बनारसमें सभी दर्शनोंके विद्वान् सुलभ हैं, इसलिए इन सभी विद्वानोंमे मिलकर सभी दर्शनोंकी पृष्ठभूमिको समझा जाये ।
STIE RE
उसी समय श्री पार्श्वनाथ विद्याश्रममें स्व० डा० गुलाबचन्द्रजी शोध कार्य करते थे । डॉ० सा० का उस विदेशी विद्वान् से सम्पर्क होनेपर उन्होंने अपनी इच्छा डॉ० सा० को बतलायी और पूछा कि जैनदर्शनका ऐसा कौन विद्वान् है जिससे मिलकर जैनदर्शनकी पृष्ठभूमिको समझा जाये । परिणामस्वरूप डॉ० सा० पिताजीको आमंत्रित कर उस विदेशी विद्वान् के पास ले गये । पिताजीकी उस विद्वान् से लम्बी चर्चा हुई। इस चर्चा में उस विद्वान् ने दो प्रश्न मुख्य रूपसे पूछे। एक तो यह कि जैनधर्मको माननेवाले सभी भाई अपने नाम के आगे जैन क्यों लिखते हैं ? पिताजीने उत्तर दिया कि अन्य धर्मावलंबियोंमें माँस मदिराके त्यागकी कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है जबकि जैनधर्मावलंबियोंमें इनके अनिवार्य त्यागकी व्यवस्था है । इसलिए प्रवासके समय यह जानने के लिए कि माँस-मदिराका त्यागी कौन भाई है, ताकि उसके साथ खाया पिया जा सके यह जानने के लिए, अपने नामके आगे जैन लगाते हैं । उस विद्वान्का दूसरा प्रश्न था कि सभी धर्मो में हिंसा, झूठ, चोरी आदि को निषिद्ध बतलाया है। जैन धर्ममें भो है । फिर ऐसी कौन-सी बात है जिससे कि जैनधर्म अन्य धर्मोसे अलग समझा जाये ?" इस प्रश्नको सुनकर पिताजी क्षणभर तो विचार करते रहे । उसी समय णमोकार मंत्रका स्मरण हो आया और उत्तर ध्यानमें आ गया । पिताजीने उत्तर दिया कि 'व्यक्ति स्वातन्त्र्य जैन धर्मका उद्देश्य है और स्वावलम्बन उसकी प्राप्तिका मार्ग है । ये दो बातें यदि अन्य किसी दर्शन में मिल जायें तो हम उसे स्वीकार करनेके लिए तैयार हैं।' इसे सुनकर वह विद्वान् बहुत प्रसन्न हुआ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org