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चतुर्थ खण्ड : ११९
पूजीवादी मनोवृत्ति
पूंजीवादी मनोवृत्ति किसीका विश्वास नहीं करती। गत युद्धसे यह दोष स्पष्ट रूपसे लक्ष्यमें आ रहा है। हिटलर जर्मनीकी ताकत इसलिये बढ़ाना चाहता था कि जिससे वह भी मित्र राष्ट्रों की तरह दूसरे देशोंका शोषण कर सके । सन्धि और समझौतेसे जब यह कार्य सम्पन्न नहीं किया जा सका तब उसने युद्धका सहारा लिया। वस्तुतः उसकी इच्छा ब्रिटेनको उतना पंगु बनानेकी नहीं थी, जितना कि वह अपने पड़ोसी रूससे डरता था । ब्रिटेन और अमेरिका इससे उचित लाभ नहीं उठा सके और इसलिये पूजीकी ताकत श्रमकी ताकतसे उत्तरोत्तर घटती गई । भारतकी प्राचीन युद्ध परम्परा
इतिहाससे स्पष्ट है कि भारतमें युद्धोंमें विजय पानेके अर्थमूलक तीन आधार रहे हैं । राजा, धर्म और जातीयता । वैदिक कालसे ये तीनों शब्द अर्थ विशेषमें प्रयुक्त होते आये हैं। मनुस्मृतिके अनुसार राजा ईश्वरका अंश होनेसे प्रभुसत्ताका पर्यायवाची है, धर्म अर्थमलक समाज व्यवस्थाका प्रतिनिधि होनेसे वर्गप्रभुत्वका पर्यायवाची है और जातीयताका अर्थ उच्चत्व तथा नीचत्वके आधारसे वर्गोको स्थायीरूप प्रदान करना है । ईश्वरवाद तो इस व्यवस्थाका पोषक रहा ही है। किन्तु उन समस्याओंको जो ईश्वरवादके मानने पर उठ खड़ी होती हैं, कर्मवादसे सुलझानेका प्रयन्न किया गया है। वर्णाश्रम धर्मको अधिकतर लड़ाईयोंमें जय इसी आधारपर मिली है। किन्तु दूसरे देशोंसे सम्पर्क बढ़ने के बाद भारतवर्षकी स्थितिमें अन्तर आया है। अब ईश्वरवाद और जातिवादका समाजमें कोई स्थान नहीं रहा है । इनका स्थान एकमात्र पूंजीने ले लिया है। पूंजीकी श्रमके साथ जो लड़ाई पहले प्रच्छन्नरूपसे चल रही थी, वह अपने सब आवरणोंको समाप्त कर स्पष्टरूपसे दिखाई देने लगी है। मार्क्सके संगठनका आधार
इस स्थितिको साफ करने में मार्क्सवाद ने बड़ी सहायता की है। मार्स विश्वकी समस्त घटनाओंको आर्थिक दृष्टिकोणसे देखता है। उसका कथन है कि समाजका मुख्य आधार आर्थिक व्यवस्था है। किसी समाजकी उन्नति और अवनतिका मल कारण उसकी उन्नत और अवनत आर्थिक व्यवस्था ही होती है। समाजका आर्थिक और राजनैतिक ढांचा इसी आधार पर विकसित होता है। व्यक्तिके जीवनमें जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं, उसका मुख्य कारण आर्थिक आधार ही है। मार्सका यह कथन इतिहासके अनशीलनका परिणाम है। मार्क्सने समाज व्यवस्थाके पंजीवादी आर्थिक ढाँचेको बदलने के लिए मात्र श्रमपर अधिक जोर ही नहीं दिया है, किन्तु उसके संग उनके उपाय भी प्रस्तुत किये हैं । मुख्य प्रश्न
, इस प्रकार हम देखते हैं कि इस समय पूंजी और श्रमके आधारपर विश्व दो भागोंमें बँट गया है। पूंजीवाद और समाजवादके आगे शेष सब वाद फ़ीके पड़ते जा रहे है । ईश्वरवादी प्रत्येक व्यवस्थामें ईश्वरकी दुहाई देनेका प्रयत्न करते हैं अवश्य, पर अब वे अनीश्वरवादियोंको नास्तिक कहनेका साहस नहीं करते । अब तो विश्वके विचारकोंके सामने यह मुख्य प्रश्न है कि विश्व में सद्भाव और प्रेमका संचार कैसे हो? यद्यपि हम यह जानते हैं कि पूंजीवाद और समाजवादकी समस्याके ठीक तरहसे हल हुए बिना यह सब हो सकना असम्भव है। यदि विश्वमें हमें युद्ध विरोधी भूमिका तैयार करनी है तो सर्वप्रथम इन वादोंकी समस्या हल करनी होगी। हमें देखना होगा कि तत्त्वतः किस मार्गको स्वीकार करने पर विश्वशान्तिका मार्ग प्रशस्त हो सकता है।
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