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३५२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फुलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ
वह आलम्बन जड़ भी होता है और चेतन भी । इससे क्या ? लोकमें जिसने भी निमित्तनैमित्तिक सम्बन्धको जाना है वह यह अच्छी तरहसे जानता है कि कार्यकी सिद्धि जड़को निमित्तकर भी होती है और चेतनको निमित्तकर भी होती है । कार्यकी सिद्धि मुख्य है ।
इसी बात को ध्यान में रखकर आगममें आलम्बनको चार भागों में विभक्त किया गया है— द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । कार्य सिद्धि में निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्धवश कोई भी द्रव्य निमित्त बन जाता है । चैत्यालय क्या है ? जड़का परिणाम ही तो है । पर उसे निमित्तकर विवेकी पुरुष धर्मका साधन करते ही हैं । क्षेत्र कहने शिखरजी, गिरनारजी तथा निसईजी आदिका ग्रहण होता है । तो वे भी धर्मसाधनके निमित्त हैं । कालसे २४ तीर्थंकरोंके पाँचों कल्याणकों की तिथियों, स्वामीजीके जन्मदिन आदिका ग्रहण होता है । पंचांगसे इन तिथियोंको जानकर उस दिन सभी भाई-बहिन व्रत-उपवास आदि द्वारा धर्मकी आराधना करते ही हैं । भावोंकी बात स्पष्ट ही है । इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रयोजनके अनुसार धर्म साधनमें व्यवहारसे जड़-चेतन सभीकी उपयोगिता है | स्वामीजीने इसी बातको ध्यानमें रखकर पण्डितपूजामें लिखा भी है
एतत्सम्यक्त्वपूज्यस्य समाचरेत् । मुक्तिश्रियं पथं शुद्धं व्यवहार - निश्चयशाश्वतम् ||३२||
पूज्य-पूजा
ऐसे यथार्थ पूज्य पंचपरमेष्ठीको पूजा करनी चाहिये । यह शाश्वत मुक्तिश्रीको प्राप्त करनेके लिये व्यवहार - निश्चयस्वरूप मोक्षमार्ग है || ३२ ॥
स्वामीजी ने अपने उपदेशों द्वारा इसी मार्गका उपदेश दिया है इसमें सन्देह नहीं है । उन्होंने व्यवहारको सर्वथा गौण नहीं किया है ।
फिर भी परवार समाज और समैया समाज एक होकर इन दो भागों में विभक्त क्यों हो गये ? इसका मूल कारण अध्यात्म नहीं है; किन्तु मात्र व्यवहार मार्गको अनभिज्ञता ही इसका मूल कारण है। जिन तारणतरण श्रावकाचार में दो गाथाएं आती हैं जो इस प्रकार हैं
अशुद्धं प्रोक्तं चैव देवल देव पि जानते । क्षेत्र अनन्त हिंडते अदेवं देव उच्यते ॥ ३१०|| देहह देवल देवं च उवइट्टो जिनवरिं हि । परमेष्ठी संजुतं पूजं च सुद्धसम्यक्तं ॥ ३२५ ॥
लगभग इसी प्रकार की एक गाथा योगसारमें भी आई है । वह इस प्रकार हैतिहिं देवलि देउ णवि इम सुइकेवलि वुत्तु । णाणि णिमंतु ॥
देहदेवलु देउ जिणु एहउ
यह तो स्पष्ट है कि जब योगसारकी गाथा स्वाश्रित ध्यानके सम्बन्धसे उसमें दी गई है । ऐसी अवस्थामें श्री नितारण तरण श्रावकाचारमें जो उक्त दो गाथाएँ आयीं हैं वे क्या स्वाश्रित ध्यानके सम्बन्धसे आई हैं या क्या बात है इसे स्पष्ट समझे बिना यह समस्या हल नहीं हो सकती ।
'योगसार' तो ध्यान विशेषकी प्ररूपणा करनेवाला ग्रन्थ है । किन्तु वही स्थिति श्री जिनतारण तरण श्रावकाचार की नहीं हैं । वह मुख्यतया श्रावकोंकी अन्तरंग परिणामोंके अनुरूप बाह्य क्रियाकी प्ररूपणा करनेवाला ग्रन्थ है । ऐसी अवस्था में उसमें देवता (मन्दिर) में स्थित देवको अशुद्ध कहनेका क्या कारण हो सकता है ? क्या इसका यह अर्थ है कि श्री जिन मन्दिरमें जिनदेव के प्रतिबिम्बकी स्थापना न की जाय । यदि इसका
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