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चतुर्थ खण्ड : ३८९
सम्यग्दर्शनके धारी शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं तथा जिनके गलेमें अर्थात् कण्ठमें आत्मगुणोंकी माला झूल रही है और जो सत्यार्थस्वरूप आत्मवत्त्वकी भावना करते हैं वे संसारसे मुक्त होकर निराकुल सुख और अनन्त वोर्य के धारी सिद्ध होते हैं ||१७|| ज्ञानगुणकी जिस मालामें हे आत्मन् तेरे अनन्त गुण गूँथे गये हैं वह प्रशस्त रत्नत्रयसे अलंकृत है । इस प्रकार श्री जिनेन्द्रदेवने यथार्थ तत्त्वका निरूपण किया || १८ || श्री वीरनाथको देखकर श्रेणिक राजा, धरणेन्द्र, इन्द्र, गन्धर्व, यक्ष, राजाओंका समूह तथा विद्याधर ज्ञानमय सुशोभित मालाकी प्रार्थना करते हैं ||१९|| अनेकविध अनन्त रत्नोंसे क्या प्रयोजन, अनेक प्रकारके धनसे भी क्या प्रयोजन, राज्यका त्याग कर यदि वनवास लिया तो भी क्या लाभ हुआ, अनेक प्रकारके तप तपे तो उससे भी क्या कार्य साधा || २० || श्री वीर भगवान् श्रेणिक राजासे शुद्ध मन-वचन-कायसे मालाके गुणोंको प्राप्त करनेके लिये हमारे कथनको सुनो ! यदि तुमने गुणमाला नहीं देखी तो इन रत्नोंसे क्या प्रयोजन, इस धनसे भी क्या लाभ, यदि राजा हुए तो क्या हुए, यदि तुमने तप तपा तो भी वह किस कामका ।। २१ ।। अर्थसे क्या प्रयोजन ? उससे आत्माका क्या कार्य सधा ? बड़े भारी राज्यसे क्या प्रयोजन ? कामदेव के समान रूप मिला तो वह किस कामका ? सम्यग्दर्शनके बिना तप तपनेसे क्या सधा ? ||२२||
जिनेन्द्रदेवने कहा कि यदि गुणमालाका अनुभव नहीं किये तो नाना प्रकारके इन्द्र, धरणेन्द्र, गन्धर्व, यक्ष आदि पदोंसे क्या लाभ ||२३|| समस्त तत्त्वार्थो में सार्थक जो निश्चय सम्यग्दर्शन सहित शुद्ध सम्यग्दृष्टि है और जो आशा, भय, लोभ और स्नेहसे रहित हैं; उनके हृदयमें और कण्ठमें ही गुणमाला सुशोभित होती है। ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है || २४|| नाना प्रकारकी समृद्धि से युक्त तथा निश्चय सम्यग्दृष्टि शुद्ध दृष्टि हैं उन्होंने ही हृदय और कण्ठमें सुशोभित गुणमालाको जाना है - ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है || २५ || जो मिथ्यात्व, लज्जा, भय और तीन गारवोंसे विरक्त होकर शुद्ध सम्यग्दृष्टि हैं उनके हृदय और कण्ठमें गुणमाला सुशोभित होती है । वास्तवमें वे ही मुक्तिगामी हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है ||२६|| जो शुद्ध मिथ्यात्व, रागादि दोष और असत्यका त्याग कर चुके हैं उन्होंके हृदयमें - गले में वास्तवमें वे सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्व आदि कर्मोंसे रहित हैं ॥२७॥ जो पदस्थ, ध्यानसे युक्त हैं तथा जिन्होंने रौद्र और आर्त्तध्यानसे रहित होकर आठ हृदय और कण्ठ गुणमाला सुशोभित होती है ||२८||
दर्शन ज्ञान चारित्र से सम्पन्न है गुणमाला सुशोभित होती है । पिण्डस्थ, रूपस्थ और रूपातीत मद-मानका त्याग किया है उन्हींके
उसपर चलनेवाले तथा तीनों प्रकारके
उपशमभाव और क्षायिकभावसे शुद्ध जिनदेवने जो मार्ग कहा मिथ्यात्व, मलदोष और रागसे मुक्त हैं उन्हींके हृदय और कण्ठमें सुशोभित माला देखी जाती है ||२९|| जो चेतना तत्त्वको चेतते हैं, अचेतन विनाशिक है और असत्य है, उन्होंने उसका त्याग किया है, जिन्हें जिनेन्द्रदेव कथित सार्थक तत्त्वोंका प्रकाश मिला है उन्हींके हृदय और कण्ठसे माला स्वयं अनुभूत होती है ॥ ३० ॥ जिन्हें प्रशस्त रूप शुद्ध-बुद्ध गुण उपलब्ध हुए हैं तथा जिन्हें धर्मका प्रकाश हुआ है वे ही मोक्षमें प्रवेश करते हैं तथा उनके हृदय और कण्डमें माला निरन्तर डोलती रहती हैं ||३१|| जिन्होंने सिद्ध होकर अनन्त मुक्तिमें प्रवेश किया है, स्वरूपभूत शुद्ध अनन्त गुणोंसे गूँथी हुई माला उन्हें प्राप्त होती है जो कोई भव्यात्मा शुद्ध सम्यग्दर्शनके धारी हैं वे मोक्षको प्राप्त होते हैं ऐसा जिनेन्द्रदेवने कहा है || ३२॥
उपसंहार
यह गुणमालाका भावानुवाद है । इसमें उन सभी अवस्थाओं और गुणोंका निरूपण हुआ है जिन गुणरूपी फूलोंसे यह माला पिरोई गई है । इसमें बहुलता से माला शब्दका प्रयोग हुआ है। तीन गाथाएँ ऐसी हैं जिनमें गुणमाला शब्द आया है । स्वामीजीकी दृष्टिसे यह इसका पूरा नाम है । इसमें सर्वत्र 'हृदय केन्द्र
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