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३९६ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ हैं। उनकी वाणीमें जादू है। उन्होंने अध्यात्मको जीवन में उतारकर तथा अपने उपदेशों और ग्रन्थरचना द्वारा ऐसे वातावरणका निर्माण किया जिससे इस प्रदेशमें पुराने कालसे चली आयी शुद्ध व्यवहार निश्चय स्वरूप तेरापंथ रूप अध्यात्मप्रवृत्ति की पुष्टि हुई।
मुझे तो ये तीनों बत्तीसियाँ तीन रत्न प्रतीत हए। जैसे रत्नोंका हार गले और छातीकी शोभा बढ़ाता है वैसे ही ये तीनों बत्तीसियाँ कण्ठ और हृदयमें धारण करने लायक हैं। जिनागमसे इनमें व्यवहार निश्चय स्वरूप किसी प्रकारका विरुद्ध कथन किया हो ऐसी कल्पना करना अपने अज्ञानको ऊजागर करना मात्र है। इनका सभी स्वाध्यायप्रेमी मनन और अनुगमन करें ऐसी भावना है।
ज्ञानसमुच्चयसार (अ) जिन उवएसं सारं, किंचित् उवएस कहिय सद्भावं ।
___ तं जिन तारन रहयं, कम्मक्षय मुक्तिकारनं सुद्धं ।।९०६।। श्री जिनेन्द्रदेवका जो साररूप उपदेश है उसके कुछ अंशको लेकर 'जिन तारन' नामसे प्रसिद्ध इस ग्रन्थकी मैंने रचना की है। भगवानका यह उपदेश कर्मक्षयके साथ मोक्षप्राप्तिका निमित्त है और पूर्वापर समस्त दोषोंसे रहित है ॥९०६॥
(आ) आगे इसी ग्रन्थकी पुष्पिकामें उनका पूरा नाम जिन तारनतरन दिया है । यथाइति ज्ञानसमच्चय सार ग्रन्थ जिन तारण तरण विरचित
ता। (इ) प्रत्येक ग्रन्थकी अंतिम पुष्पिकाके समान छद्मस्थवाणीके अंतिम अध्यायमें भी स्वामीजीके पूरे नामका इसप्रकार उल्लेख दृष्टिगोचर होता है । 'जिन तारण-तरण शरीर छूटो'
इन सबको देखनेसे विदित होता है कि प्रकृत ग्रन्थके रचयिताका पूरा नाम 'जिन तारण' न होकर 'जिन तारण-तरण' ही प्रचलित था। उनका 'जिन तारण' यह संक्षिप्त नाम है ।
ठिकानेसार ग्रन्थके देखनेसे विदित होता है कि आम जनता इनको 'स्वामीजी' इस नामसे विशेष रूपसे सम्बोधित करती रही है।
(१) मालूम पड़ता है कि उनका 'जिन तारण तरण' नाम जन्मनाम न होकर ग्रन्थ-रचनाकालमें या ग्रन्थरचनाके पूर्व ही ध्यान-अध्ययनसे ओतप्रोत उनकी अध्यात्मवृत्त अवस्थाको देखकर साधारण जनताके द्वारा रखा गया होना चाहिये ।
(२) यह भी सम्भव है कि अपनी रचनाओंमें स्वामीजीने जिनदेव और जिन गुरुके लिये 'तारणतरण' पदका बहुलतासे प्रयोग किया है, इसलिये अपना गुरु मानकर उन्हें भी जनता द्वारा 'जिन तारण-तरण' नामसे सम्बोधित किया जाने लगा हो।
- जो कुछ भी हो, इतना स्पष्ट है कि अपनी विपुल रचनाके पूर्व ही वे 'जिन तारण तरण' इस नामसे जाने माने लगे होंगे। यही कारण है कि अपनी कई रचनाओंके अन्तमें उन्होंने 'जिन तारण विरइयं' तथा मुक्ति श्री फूलनामें 'मन हरषिय हो जिन तारण' इस रूपमें अपने नामका स्वयं उल्लेख किया है। जन्मतिथि निर्णय
हमारे सामने तीन ठिकानेसार उपलब्ध हैं। उन सबमें भगवान् महावीरके कालसे लेकर इसप्रकार विवरण मिलता है :
'वीरनाथकी आयु वर्ष बहत्तर, काय हाथ सात एवं काल चौथी। पंचमौ कालकी आर्वलि इकीस हजार वर्ष । कालि को नाम दुषमा। मनुष्यकी काया हाथ साढ़े तीन । मनुष्यको आवलि वर्षकी वीसा सौ, तामे घटि बड़ । उन्नीस सौ पचहत्तरि वर्ष गये ते 'तार काल' हु है ।
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