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५२० : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ यह कितनी बड़ी विडम्बनाकी बात है कि भारतवर्षको स्वराज्य दिलाने में हमारा सांस्कृतिक कार्यक्रम सफल रहा
और विश्वके आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक प्रश्नोंको सुलझाने में भारतवर्ष उसी सह-अस्तित्वमूलक अहिंसक व अनेकान्तात्मक दृष्टिकोणसे काम ले रहा है, फिर भी उसका श्रेय हमें यत्किचित् भी नहीं मिल रहा है । यद्यपि हम श्रेयके भखे नहीं है, पर पूरे तथ्य जनताके समक्ष न आ सकनेके कारण कदाचित् सारी परिस्थिति के उलटनेका भय है। हमारे यहाँ अकम्पन आदि ७२० मुनियोंकी कथा आती है। बलि राजाहारा उनकी धार्मिक स्वतन्त्रताके छीननेका प्रयत्न करने पर उन्होंने अहिंसक सत्याग्रह द्वारा हो तो उसका प्रतीकार किया था। क्या हमें इस घटना या इसी प्रकारकी अन्य घटनाओंके आधार पर सत्यको उद्घाटित करनेका प्रयत्न नहीं करना चाहिए, जो आज भारतवर्षकी राष्ट्रीय थाती मानी जाने लगी है। हमारा विश्वास है कि हमारे सब साथी व समाज इन तथ्योंको ध्यानमें रखकर अपने दृष्टिकोणमें न केवल विशालता लावेंगे, अपितु वे और अधिक संगठित होकर उसका समचित उपयोग करनेकी दिशामें योग्य कदम उठानेका भी प्रयत्न करेंगे। समाजके प्रति
अपने भाषणको समाप्त करनेके पहले यदि हम समाजसे दो शब्द कहें, तो अनुचित न होगा। बात यह है कि विद्वान् समाजके एक अङ्ग है । वे जो भी कार्य अपने हाथमें लेते हैं, उसे पूरा करनेके लिए उन्हें समाजका वांछित सहयोग अपेक्षित है। अतः समाजका भी कर्तव्य है कि वह वर्तमान गतिविधिको देखते हुए अपने दष्टिकोणमें मौलिक परिवर्तन करे । प्रथम तो उसे दिखाऊ कार्योकी अपेक्षा स्थायी कार्योंके सञ्चालनकी ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। दूसरे, उसे विद्वानोंके प्रति अपने रुखमें समुचित परिवर्तन करना चाहिये, क्योंकि ये समाजके सक्रिय कार्यकर्ता हैं; वेतनभोगी नहीं। यह तो अपनी सांस्कृतिक परम्पराके अनुरूप विद्वानों का पुरोहित-वृत्ति को न स्वीकार करनेका फल है, जिससे उन्हें इस स्थितिको स्वीकार कर निर्वाह करना पड़ रहा है । वस्तुतः यह उनके बड़प्पनका सूचक है; हीनवृत्तिका सूचक नहीं। यदि समाज कार्यकर्ताके रूपमें उनके प्रति समुचित आदर व्यक्त करती है, तो इससे समाजका ही हित है। यह इतिहाससिद्ध बात है कि जो समाज अपने कार्यकर्ताका आदर करना भूल जाता है, उसकी भगवान ही रक्षा करते हैं। तीसरे, वह ऐसे लोगोंके (चाहे वे त्यागी हों या अन्य कोई भी) बहकावे में न आवे जो मतभेदकी या दूसरे प्रकारकी बातें आगे रखकर संस्थाओंको प्रगति में बाधक बनते हैं । वर्तमान कालमें समाजको यह अनुभव करना है कि हमारी परम्परा की यह गाड़ी विद्वानोंको सारथी बनाये बिना आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। यदि यह भाव उसके चित्तमें अङ्कित हो जाता है, तो सब समस्या सुलझ जाती है और विद्वान व समाज दोनों मिलकर इस महान परम्पराको आगे ले चलने में समर्थ होते है जो कि दोनोंका ध्येय है।
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