Book Title: Fulchandra Shastri Abhinandan Granth
Author(s): Jyoti Prasad Jain, Kailashchandra Shastri
Publisher: Siddhantacharya Pt Fulchandra Shastri Abhinandan Granth Prakashan Samiti Varanasi

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Page 682
________________ पंचम खण्ड : ६४३ अपेक्षित भी है, किन्तु वे ऐसी हैं जो सम्यक्त्वको दूषित करने वाली न हों, उसकी पोषक हों-- मोक्षमार्गमें बाघक न हों, उसकी साधक हों । १८५७ ई० के स्वातन्त्र्य समरके उपरान्त जब इस महादेश पर अंग्रेजी शासन सुव्यवस्थित हो गया तो प्रायः समग्र देश में नवजागृति एवं अभ्युत्थानकी एक अभूतपूर्व लहर शनै शनैः व्याप्त होने लमी, जिससे जैन समाज भी अप्रभावित न रह सका । फलस्वरूप लगभग १८७५ से १९२५ ई० के पचास वर्षोंमें शिक्षा एवं धर्मप्रचारके साथ-साथ समाज सुधारके भी अनेक आन्दोलन और अभियान चले । धर्मशास्त्रोंका मुद्रण- प्रकाशन, शिक्षालयोंकी स्थापना, स्त्रीजातिका उद्धार, कुरीतियोंके निवारणके उपक्रम, कई अखिल भारतीय सुधारवादी संगठनोंका उदय तथा धार्मिक-सामाजिक पत्र-पत्रिकाओंका प्रकाशन आदि उन्होंके परिणाम थे । जातिप्रथाकी कुरीतियों एवं हानियों पर केवल तथाकथित बाबूपार्टी (आधुनिक अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त सुधारक वर्ग ) ने ही नहीं, तथाकथित पंडितदलके भी गुरु गोपालदास बरैया जैसे महारथियोंने आवाज उठाई । बा० सूरजभान वकील, पंडित नाथूराम प्रेमी, ब्र० शीतलप्रसाद आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार प्रभृति अनेक शास्त्रज्ञ सुधारकोंने उस अभियानमें प्रभूत योग दिया । अनेक पुस्तकें व लेखादि भी लिखे गए । मुख्तार सा० की पुस्तकें जिनपूजाधिकार मीमांसा, शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण, जैनधर्म सर्वोदय तीर्थ हैं, ग्रन्थपरीक्षाएँ आदि पण्डित दरबारी लाल सत्यभक्त की विजातीय विवाह मीमांसा, बा० जयभगवानकी वीरशासनकी उदारता, पण्डित परमेष्ठीदासकी जैनधर्मकी उदारता, जैसी पुस्तकें तथा विभिन्न लेखकोंके सैकड़ों लेख प्रकाशित हुए और सुधारकोंके मंचीय जो भी मिले भाषणों में समाजको झकझोरा । ममाजमें विचार परिवर्तन भी होने लगा । स्वतन्त्रता प्राप्तिके उपरान्त आधुनिक युगकी नई परिस्थितियोंसे उसमें और अधिक वेग आया। ऐसी स्थितिमें, जैसा कि स्व० साहू शान्तिप्रसादजी ने अनुभव किया था, विवक्षित विषयों पर जैनशास्त्रीय दृष्टिसे सांगोपांग मीमांसाकी आवश्यकता थी, जिसकी पूर्ति श्री पण्डित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्रीकी इस पुस्तक 'वर्ण, जाति और धर्म मीमांसा' से बड़े अंशों में हुई है । पुस्तक तलस्पर्शी और मौलिक हैं, और विवेचित विषयों के सम्बन्धमें समाजको दिशादर्शन देनेकी पूरी क्षमता रखती हैं । सबसे बड़ी बात यह है कि वह स्वतन्त्र विचारणाको प्रेरणा और प्रोत्सान देती है । पाठक पग-पग पर पुनः पुनः सोचने और अपनी पूर्व बद्ध धारणाओंमें संशोधन करनेके लिए विवश होता है । इस पुस्तक के प्रणयनके लिए पंडितजी साधुवादके पात्र तो हैं ही । जयपुर (खानिया) तत्त्वचर्चा : एक समीक्षा Jain Education International आत्माका कल्याण या उत्कर्ष मोक्षमार्ग पर चलनेसे प्रारम्भ होता है । उस मोक्षमार्गको प्रशस्त करने के लिए जिनेन्द्रकी वाणी पथकी प्रज्ज्वलित प्रदीप है । यह जिनवाणी चार अनुयोगों में विभक्त हैं। ये चारों ही अनुयोग आत्मोत्थान के लिए अत्यन्त उपयोगी वीतराग मार्गको पुष्ट करते हैं । यद्यपि उनकी कथन पद्धति एक दूसरे से भिन्न मालूम पड़ती है । उनमें नय दृष्टिसे तो अन्तर दिखता है, किन्तु लक्ष्य और भाव सबका एकमात्र श्री प्रकाश हितैषी शास्त्री, दिल्ली For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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