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६६२ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थ
उक्त सम्पूर्ण विवेचन “कषायप्राभृत" (कसायपाहुड) की टीका जयधवलाके पन्द्रह अधिकारों में से पश्चिमस्कन्ध नामके पन्द्रहवें अधिकारके अनुसार किया गया है। यथार्थमें महान् सिद्धान्त ग्रन्थके आधार पर ही इसकी रचना हुई। क्योंकि षट्खण्डागम जीवस्थानको छोड़कर शेष पाँच खण्डोंकी आधारभूत वस्तु "महाकम्मपयडिपाहड" है । जीवस्थानकी सामग्री अन्य मूल अंगपूर्वकी है । अतः आगमके अनुसार इनमें तत्त्वप्ररूपणा
। “पटखण्डागम" और "कषायप्राभत" मल आगम साहित्य है। "लब्धिसार"की संस्कृत टीकासे स्पष्ट हो जाता है कि रचनाकार ने मूल आगमके अनुसार ही विषयको रचनाबद्ध किया है । दिगम्बर जैन वाङ्मय में आगम-साहित्य गुरु-परम्परासे क्रमिक वाचनाके रूपमें उपलब्ध होता है । “महाक म्मपयडिपाहुड" में आठ कर्मोके विवेचनकी प्ररूपणा तथा "पेज्जदोसपाहुड में केवल मोहनीय कर्मकी विशद प्ररूपणा उपलब्ध होती है । इनके अतिरिक्त आचार्य यतिवृषभ रचित "कसायपाहुड'की सूत्र-गाथाओं पर चूर्णिसूत्रोंकी रचना भी समपलब्ध है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने इन तीनों सिद्धान्ध-ग्रन्थोंके आधार पर तीन रचनाएं निबद्ध की, जिनके नाम है-गोम्मटसार, लब्धिसार और त्रिलोकसार । "क्षपणासार" कोई स्वतन्त्र रचना नहीं है। इसका अन्तर्भाव 'लब्धिसार" में ही हो जाता है।
क्षपणासार-गर्भित "लब्धिसार'की रचना ६५३ गाथाओं में निबद्ध है। इस ग्रन्थके सम्यक् अनुशीलनसे यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने साठ सहन इलोकप्रमाण "जयधवला" टीकाका सार ग्रहण कर ६५३ गाथाओंमें संकलित कर दिया। आचार्यप्रवरकी यह महती विशेषता है कि उन्होंने गागरमें सागर भर दिया। "जयधवला"का कोई भी विषय इस ग्रन्थमें निबद्ध होने से छूटा नहीं है। पण्डितप्रवर टोडरमलजीने स्पष्ट रूपसे उल्लेख किया है कि इस ग्रन्थका प्रकाश धवलादि शास्त्रोंके अनुसार किया गया है। इस ग्रन्थका महत्त्व इससे भी स्पष्ट है कि इस पर संस्कृत टीकाएं लिखी गई । केशववर्णीकी संस्कृत टीका प्रसिद्ध है । “लब्धिसार"के छह अधिकारोंमें से पांचवें चारित्रमोहनीय उपशमना अधिकार तक संस्कृत टीका पाई जाती है। कर्म-क्षपणाके अधिकारकी गाथाओंका विशदीकरण माधवचन्द्र
विद्यदेवके संस्कृत गद्यरूप "क्षपणासार"के अभिप्रायके अनुसार इस ग्रन्थमें सम्मिलित किया गया है । इसलिये इस ग्रन्थका नाम लब्धिसार-क्षपणासार रखा गया है। सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका टीका
संस्कृत टीकाओं की भाँति आचार्यकल्प पण्डितप्रवर टोडरमलजी कृत "सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका" मूल आगमानुसारिणी विशद तथा सुबोध टीका है । इस टीका का अध्ययन करनेसे पण्डितप्रवर के तलस्पर्शी ज्ञानका सहज ही अनुमान हो जाता है। सिद्धान्तशास्त्री पं० फूलचन्द्रजीके शब्दोंमें "पण्डितजीने अपनी टीकामें जितना कुछ लिपिबद्ध किया है, उसे यदि हम उक्त संस्कृत वृत्तियों और "क्षपणासार''का मूलानुगामी अनुवाद कहें, तो भी कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इतना अवश्य है कि जहां आवश्यक समझा वहाँ भावार्थ आदि द्वारा उन्होंने उसे विशद अवश्य किया है । "इसमें कोई सन्देह नहीं है कि वर्तमान में यदि “सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका" टीका न होती, तो करणानुयोगका दुरूह विषय विद्वानोंकी समझके भी बाहर रहता। पण्डितप्रवर टोडरमलजीकी ही दर्गम घाटीमें प्रवेश कर अध्यात्मके आलोकका प्रकाश किया, जिसे भावी पीढ़ियां सतत मार्ग-दर्शनके रूपमें 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका'को स्मरण करती रहेंगी। जो महान् कार्य श्रीमन्नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीने गाथाओंमें 'लब्धिसार'की रचनाको प्रकाशित कर किया, वही कार्य आचार्यकल्प पण्डित टोडरमलजीने देशी भाषा वच निकाके माध्यम से किया । यदि पण्डितजीने यह टोका न लिखी होती, तो बीसवीं शताब्दीके विद्वान् करणानुयोगके गहन-गम्भीर पारावारमें प्रवेश नहीं कर पाते । आधुनिक युगमें विद्वानोंके गुरुओंके भी गुरु पण्डितप्रवर गोपालदासजी बरैयासे
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