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६६८ : सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री अभिनन्दन-ग्रन्थे
इसी प्रकार मिथ्यात्व बन्धका प्रधान कारण है, इसे पंडितजीने कई तरहसे सिद्ध किया है। इससे पूर्व प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बन्धोंमें आदिके दो बन्धोंको योग निमित्तक और अन्य दो को कषाय निमितक बतलानेके आगमके अभिप्रायको स्पष्ट करते हुए कहा है कि यह ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षासे प्रतिपादन है और मिथ्यात्व आदि पाँचको बन्ध-कारण बतलानेमें नैगम, संग्रह और व्यवहार नयकी विवक्षा है। दोनों ही कथन नय-विवक्षासे अपनी-अपनी जगह आगमानुसार ही है । इस सम्बन्धमें किया गया विस्तृत विवेचन उनकी विशेषज्ञताको स्पष्ट प्रकट करता है।
२. मुनि-मार्गमें आज जो शैथिल्य दृष्टिगोचर हो रहा है, उसके सम्बन्धमें भी पंडितजी ने बड़े स्पष्ट रूपमें लिखा है कि साधुको आगमचक्षु कहा गया है । अतः उसे सर्वप्रथम आगमका अभ्यासी होना चाहिए । आत्मानुशासनकी गाथा १६९ आदिके द्वारा साधुको आगम-निष्णात होने पर बल देते हुए पंडितजीने बतलाया है कि जो साधु अपने मनरूपी मर्कटको अपने वशमें रखना चाहता है, उसे अपने चित्तको सम्यक् श्रतके अभ्यासमें नियमसे लगाना चाहिए। रयणसार' के आधारसे आपने लिखा है कि जैसे श्रावक धर्ममें दान और पूजा मुख्य हैं। इनके बिना वह श्रावक नहीं हो सकता । वैसे ही मुनिधर्मसें ध्यान और अध्ययन ये दो कार्य मुख्य हैं । इनके बिना मुनि नहीं। इसी प्रसंगमें पंडितजीने लिखा है कि मोक्षमार्गमें आगम सर्वोपरि है। उसके हार्दको समझे बिना कोई भी संसारी प्राणी मोक्षमार्गके प्रथम सोपानस्वरूप सम्यक्दर्शनको भी प्राप्त नहीं कर सकता।
- आत्मानुशासनके प्रारम्भमें सम्यकदर्शनके जिन दस भेदोंका कथन किया गया है, उनमेसे अवगाढ़ सम्यग्दर्शन तो सकल श्रुतके धारी श्रुतकेवलीके ही होता है । इससे ही साधुकी श्रुताधारता स्पष्ट हो जाती है । परमावगाढ़ सम्यग्दर्शन केवलोके ही होता है। पर उनका यह केवलज्ञान श्रुतसे ही होता है और श्रुतका जनक होता है । यही कारण है कि समन्तभद्र स्वामीने भी गुरुको 'ज्ञान-ध्यान तपोरक्तः' बताते हुए उसे 'ज्ञान-रत' प्रथमतः कहा है।
इसी सन्दर्भ में मुनि-मार्ग में आये शैथिल्यके समर्थक उल्लेखोंको भी प्रस्तुत करके आचार्य अकलंक और आचार्य विद्यानन्दके विवेचनों द्वारा उनकी कड़ी समीक्षा की है जो उचित है।
इस संस्करणकी एक विशेषता यह है कि आचार्यकल्प पं० टोडरमलजी द्वारा ढूढारी भाषामें लिखी गयी टीकाको ही इसमें दिया गया है । उसे खड़ी बोलीमें परिवर्तित नहीं किया गया है। इसका मुख्य कारण उस भाषा-बोलीको सुरक्षित रखना है, क्योंकि ढूंढारी भाषा भी हिन्दी भाषाका एक उपभेद है । और विविध प्रदेशोंमें बोली जानेवाली इन हिन्दी भाषाओं (हिन्दी भाषाके उपभेदों) की सुरक्षा तभी सम्भव है, जब उनमें लिखे साहित्यको हम ज्यों-का-त्यों प्रकाशित करें। इस दिशामें पण्डितजी तथा श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान वाराणसीका यह प्रयत्न निश्चय ही इलाध्य है ।
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